
झारखंड में सत्ता के लिए हो रही जोड़-तोड़ ने इसे नेशनल मीडिया में लाइमलाइट में ला दिया है। २००० से २००८ तक के सफर में इस राज्य में चार मुख्यमंत्री आये और गये। कारण और कुछ नहीं, बल्कि खंडित जनादेश और उससे उत्पन्न परिस्थितियां ही हैं। केंद्र हो या राज्य, हर बार चुनावों में जनता किसी भी दल को पूणॆ बहुमत नहीं दे रही है। हालत यह हो गयी कि यहां झारखंड में सरकारें निदॆलीयों के रहमोकरम पर टिकी रहीं। राज्य में पहली बार निदॆलीय मुख्यमंत्री मधु कोड़ा विराजमान हुए। लेकिन गुरुजी की सत्ता पाने की इच्छा के कारण उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी। इन सब खेल के पीछे बस एक ही कारण खंडित जनादेश ही है। इस कारण कोई दल या सरकार अपनी इच्छा के अनुसार कोई काम नहीं कर पा रही है। इसी का परिणाम था कि विश्वासमत के दौरान भी अजीब सी परिस्थिति का इस देश को सामना करना पड़ा। राजनीति और आरोप-प्रत्यारोप का इतना स्तर इतना गिरा कि हमारा विश्वास खंड-खंड हो गया। ऐसा लगा, जैसे इस देश में सिस्टम नाम की चीज ही नहीं रह गयी है। लेकिन इन तमाम घटनाओं के पीछे हमारा अपना एकमत नहीं हो पाना ही एक कारण है। हम किसी दल विशेष को कभी भी अपना पूणॆ समथॆन नहीं दे रहे। आत्मविश्वास में आयी कमी ने दलों को कई भागों में विभक्त कर दिया। सबकी अपनी दलीलें हैं और अपने तकॆ हैं। एक प्लेटफामॆ पर चीजों को रखने और उन्हें समझने की न तो किसी के पास समझ है और न समय। परमाणु करार से लेकर महंगाई जैसे मुद्दों तक में हमारे देश के दल आरोप-प्रत्यारोप करते रहे। झारखंड में एक सप्ताह से चल रहे सत्ता के खेल ने भी राज्य की जनता के विश्वास को तोड़ कर रख दिया है। इस कारण पूरे राज्य का विकास हाशिये पर चला गया है। कानून व्यवस्था की स्थिति तो पहले से ही डांवाडोल थी। ये सब और कुछ नहीं, बल्कि खंडित जनादेश के ही दुष्परिणाम हैं। कान्सेप्ट क्लीयर है, अगर विकास, समृद्धि और स्थिरता चाहिए, तो किसी भी एक दल में विश्वास जताते हुए, उसे आम जनता पूणॆ बहुमत दे। ऐसा नहीं करने पर राज्य और देश की बागडोर उन मौकापरस्तों के हाथों में होगी, जो जब जैसा चाहेंगे, वैसा करेंगे।
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