Friday, September 12, 2008

टीआरपी के नशे में उलझा इलेक्ट्रानिक मीडिया

महाप्रयोग के बारे में यहां इंडिया में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ऐसा हौवा खड़ा किया कि आम आदमी तो आम आदमी बुद्धिजीवी वगॆ के लोग भी विनाश की कल्पना करने लगे थे। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पूरी तरह ब्रेनवाश करने का किया था। वहीं यूरोप में, जिसकी धरती के नीचे, इस महाप्रयोग को अंजाम दिया जा रहा है, सब कुछ नामॆल था। सभी लोग इस आनेवाले तथाकथित विनाश की बात से दूर अपने रोजमराॆ के कामों में व्यस्त थे। पर यहां इंडिया में ब्लैक होल की ऐसी मायावी दुनिया दिखायी जा रही थी, जिसकी कल्पना मात्र से मन और मस्तिष्क कांप उठता था। वह तो भला हो प्रिंट मीडिया का, जिसने इस महाप्रयोग के बारे में सनसनी फैलाने से अपने आपको दूर रखा। बाद में मामला साफ होने पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी नरम रूख अपनाते हुए महाप्रयोग से नहीं डरने की अपील करनी शुरू कर दी।
चलिये यह सब तो ठीक है, लेकिन इस टीआरपी की होड़ में इलेक्ट्रानिक मीडिया, जो पूरी पत्रकारिता का बंटाधार करने में लग गया है, उसका क्या किया जाये? याद कीजिये आरुषि मडॆर केस में कैसे चैनलवालों ने शुरू से ही आरुषि के पिता को हत्यारा करार देना शुरू कर दिया था। पत्रकारिता की पहली पढ़ाई ही यही है कि किसी भी व्यक्ति को आप तब तक आरोपी नहीं करार दे सकते हैं, जब तक उसे कोटॆ से दोषी करार नहीं दिया जाता है। लेकिन यहां तो मीडिया खुद जज की भूमिका में आ गया।

सनसनी, भूत-प्रेत, काल-कपाल, महाकाल न जाने कैसे-कैसे शब्दों का माया जाल रच कर यह इलेक्ट्रानिक मीडिया लोगों को दिग्भ्रमित कर रहा है। जब पूरे देश में अंधविश्वास के खिलाफ जंग लड़ने की तैयारी होनी चाहिए, तो उस वक्त लोगों के दिमाग में भूत-प्रेत के ऐसे किस्से भरे जा रहे हैं कि उससे उनका रात में सोना तो दूर, दिन में चलना भी मुश्किल ही हो जाये।

फिल्मी मसालों का तड़का लगाकर न्यूज पेश करने का सिलसिला चालू है। गाहे-बगाहे कभी-कभी बाढ़ और एटॉमिक डील जैसे मुद्दों पर जरूर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने संजीदगी दिखायी है। व्यावसायिक दृषिकोण अपनाना ठीक है, लेकिन इतना भी नहीं कि आप सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लें।

दूरदशॆन के प्रारंभिक समय चाहे जैसी भी प्रस्तुति रहती हो, लेकिन उस समय एक गंभीरता जरूर समाचार कहने और उसकी प्रस्तुति में होती थी। एक बात और, जमीनी सच्चाई से दूर रहकर राजधानी में बैठकर त्वरित टिप्पणी का सिलसिला जो शुरू हुआ है, उसका भी अंत होना चाहिए। फील्ड रिपोरटिंग के बगैर सरकार को गैर-जिम्मेदार करार देना भी हमेशा उचित नहीं होता है, इसके प्रति इलेक्ट्रानिक मीडिया को सोचना चाहिए। ग्लैमर, पैसा और टीआरपी की होड़ ने पत्रकारिता को इस हद तक नुकसान पहुंचाया है कि लोग अब चैनलों और अखबारों के अलावा दूसरे स्रोतों से समाचार जानने की कोशिश करने लगे हैं। इसी का नतीजा है कि नेट का संसार काफी फैल रहा है और सूचनाओं का संसार दिन-प्रतिदिन व्यापक होता जा रहा है।

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