
सुबह में भाई की एक चीज दफ्तर जाते वक्त छूट गयी थी, उसे ही पहुंचाना था।
रास्ते में लौटते वक्त एक दुकान में सामान की खरीदारी के लिए रुका।
जहां रुका था, वहां अगल-बगल तीन-चार मॉल खुल गये हैं। बगल में गुजर रही मेन रोड में ट्रैफिक प्रेशर इतना था कि मन खीझ उठा।
मन शांत करने के लिए दुकान के तीन-चार लड़कों, जो दुकान के कमॆचारी थे, से बातचीत करने लगा।
एक ने कहा-रांची बदल गयी है। मैंने भी हां में हां मिलायी।
मुझे याद था, आइएससी में मैं इन्हीं सड़कों पर आराम से साइकिल चलाते हुए जाता था। न कोई रोकनेवाला न कोई टोकनेवाला। पेड़ों के छाये में आराम से साइकिल चलाता था। न गरमी की फिक्र रहती थी और न प्यास की।
आज सारे पेड़ सड़क चौड़ीकरण के नाम पर काट डाले गये हैं। न वह छाया है और न मस्ती-सुकून।
आज शायद रांची काफी बदल गयी है। यहां हर मोड़ पर ट्रैफिकवाला है। दूर से पहाड़ी मंदिर नजर आता था हरियाली लिये। अब शायद नजर नहीं आता। हां बड़ी-बड़ी दीवारें जरूर नजर आती हैं।
तभी चायवाला चाय दे जाता है। फिर याद आया कि कैसे इसी मेन रोड पर बेफिक्र होकर चाय पिया करता था दोस्तों के साथ। गपशप करते, बहस करते दो-चार घंटे बिताता और घर जाता।
बगल में सुजाता सिनेमा घर था। दोस्तों के साथ सिनेमा देखने जाता था। टिकट लेने के लिए पूरी प्लानिंग होती थी।
कैसे भीड़ में घुसकर टिकट लेना है, इसकी तैयारी रहती थी। टहलते-टहलते उसी सिनेमा घर की ओर गया, पाया कि अब वैसी भीड़ भी नहीं होती। रतन टॉकीज कुछ दूरी पर हुआ करता था। किसी ने बताया कि वह भी बिक चुका है। मॉल बनेगा। मन सोचने लगा, हम पुराने हो गये हैं या ये रांची नयी हो गयी है।
बगल के हजारीबाग में जोरदार बारिश की खबर थी, पर यहां तेज होते धूप की गरमी से सभी परेशान थे। कभी समर कैपिटल रहे इस रांची को किसकी नजर लग गयी। हमारी या किसी और की। मैं बस उन्हीं पुरानी सड़कों और गलियों में पुरानी रांची की जिंदगी अनमने भाव से खोज रहा था।
पहले कोई किचकिच नहीं होती और न ऐसी तड़क-भड़क होती। अब तो किसी के पास वक्त नहीं है। हम तो दोस्तों से अब जमाने के बाद मिलते हैं। हम बदल गये या दोस्त, पता नहीं...। इसी रांची ने कितने दोस्त दिये, पर इसी रांची ने अब सारे दोस्त भी छीन लिये। सबसे उनका वक्त छीन लिया फुसॆत का। शायद मेरा वो पुराना शहर पीछे छूट गया।
अलविदा रांची पुरानी रांची।
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