Tuesday, November 11, 2008
देशद्रोही फिल्म-बात है कि हजम नहीं होती
देशद्रोही नामक फिल्म का ट्रेलर इन दिनों छाया हुआ है। दमदार संवादों और वतॆमान मराठी-बिहारी विवाद पर आधारित इस फिल्म को लेकर विवादों का बाजार गमॆ है। सारी बातें ठीक लगती हैं, लेकिन ट्रेलर में नायक द्वारा हथियार उठाने की बात पचती नहीं है। पूरा मामला क्या है, यह तो फिल्म देखने के बाद ही पता लगेगा। लेकिन ट्रेलर में नायक को हथियार उठाते दिखाया जाता है। अब सवाल उठता है कि क्या किसी मुद्दे को सलटाने के लिए हथियार उठाना लाजिमी है। क्या इस देश के युवाओं की अंतरचेतना इतनी दब गयी है कि वह सिफॆ हथियार की बदौलत ही समस्या समाधान का रास्ता ढूंढ़ सकता है। हमारे यहां फिल्मों में सबसे आसान रास्ता हथियार उठाना ही दिखता है। क्या फिल्म में नायक को ऐसा नहीं दिखाया जा सकता है कि उसके विचारों से प्रेरित होकर समाज भी वैसा ही करे। आज तक क्यों मदर इंडिया जैसी फिल्म याद रखी जाती है। देशद्रोही जैसी फिल्में बाजार देखकर बनायी जाती हैं और बनायी गयी हैं। देश में काफी मुद्दे हैं, लेकिन अभी मराठी-बिहारी विवाद गमॆ है, इसलिए इस फिल्म को खुद ब खुद पब्लिसिटी मिल गयी। फिल्में बने,लेकिन ऐसी बने कि सामाजिक परिवतॆन की वाहक बनें। मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी फिल्म मजाक-मजाक में गांधी के भुलाते जा रहे सिद्धांत और विचारधारा को ताजा कर गयी। पश्चिमी और हमारे देश की फिल्मों में बस ही यही अंतर है कि वे विषय की गहराई में उतर कर फिल्में बनातें हैं और हमारे यहां विषय की सतह को छूते हुए।
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3 comments:
नाम तो बहुत सुन रहे हैं. देखिये, देख पाते हैं या नहीं.
"…पश्चिमी और हमारे देश की फिल्मों में बस ही यही अंतर है कि वे विषय की गहराई में उतर कर फिल्में बनातें हैं और हमारे यहां विषय की सतह को छूते हुए…" बहुत खूब कहा आपने, इसीलिये "गाँधी" फ़िल्म बनाने का ठेका एक विदेशी को दि्या गया और वह एटनबरो ने बखूबी निभाया भी, वरना किसी चोपड़ा, या खान ने यह फ़िल्म बनाई होती तो पता नहीं क्या दुर्दशा होती…
क्या परहेज है शस्त्र से,आप कहें श्रीमान!
कोई देवी-देवता, शस्त्र-हीन मत मान.
शस्त्र-हीन मत मान,शस्त्र रक्षा करता है.
सदा सांस्कृतिक मूल्यों को आगे रखता है.
कह साधक कवि,अगर प्रेम तुमको जीवन से.
मत कहना मेरे यार, परहेज है मुझे शस्त्र से.
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