अभी तो दौड़ना शुरू किया है
ब्लागर, ब्लागर, ब्लागर । भाई शब्द तो बड़ा आकषॆक है। आप ब्लागिंग करते हैं, तो ब्लागर कहलाते हैं। इधर कुछ दिनों से गाहे-बगाहे ब्लागरों को पत्रकार कहें या न कहें, इस पर विचार और बातें सुनने को मिलीं। इस मुद्दे पर काफी बहस की गुंजाईश है। लेकिन जहां तक भारतीय परिवेश में वो भी हिंदी ब्लागरों की बात की जाये, तो इसे मीडिया का अंग बनने के लिए थोड़ी और जुगत लगानी होगी।
मीडिया, जो कि चौथा स्तंभ है, देश और समाज पर पैनी नजर रखता है। वहां काम करनेवाले एक खास दायरे में काम करते हैं। अगर गैर जिम्मेदाराना रवैया रहा, तो उंगली भी उठती है। लेकिन क्या आप या हम ब्लागिंग से पहले किसी नियम-कानून के दायरे में रहना पसंद करेंगे।
हम ओपेन प्लेटफामॆ पर विचारों को खुलकर रखते हैं। कोई न रोकनेवाला होता है और न टोकनेवाला। फिर ऊपर से कोई अगर नजर गड़ा भी दे, तो अहं पर चोट पहुंचती है। क्या मीडिया में ऐसा हो सकता है। वहां नहीं हो सकता। आप अपनी शिकायत लेकर ऊपर बैठे संपादक तक जा सकते हैं। कम से कम प्रिंट मीडिया में तो यही बात है।
अब मान लें ब्लागिंग को लेकर कोई शिकायत करनी हो, तो आप उस व्यक्ति विशेष को ही न अपनी शिकायत बतायेंगे। अब उनकी मरजी होगी कि वे आपकी शिकायत सुनें या नहीं। यानी ऊपर से इस व्यवस्था को कंट्रोल करने के लिए कोई नहीं दिखता। मीडिया की नियंत्रण प्रणाली आपको स्वीकार होगी नहीं। क्योंकि इस ओपेन प्लेटफामॆ को आप जॉब की दृष्टि से नहीं देखते, बल्कि अपने विचारों की अभिव्यक्ति के तौर पर देखते हैं। ऐसा होने पर तब आप मीडिया का अंग बनने की योग्यता भी नहीं रखते हैं। क्योंकि मीडिया में वास्तविकता में आप काम करते हैं, जिम्मेदारी और मिशन के तहत एक खास दायरे में।
ब्लागिंग तो बस खुद को प्रसन्न रखने और संतुष्टि देने का एक माध्यम हो सकता है। कम से कम आप अपने विचारों को समाज और देश के सामने कॉमन मैन होकर भी रख सकते हैं।
ब्लागर पेशेवर नहीं हो सकते -
ब्लागिंग आप या हम पैसे के लिए भी नहीं करते। यहां पैसा प्रमुख नहीं होता। यहां हमारी संतुष्टि और विचारों को मिलनेवाली प्रतिष्ठा महत्वपूणॆ होती है। लेकिन आज का मीडिया पेशेवर हो गया है। क्या किसी चैनल या अखबार में आप गरीबों की झोपड़ी की रिपोटॆ पढ़ पाते हैं। अगर होती भी है, तो काफी कम। बाजार में अपना प्रभाव बनाने के लिए आज की मीडिया क्या-क्या नहीं कर रही है। बिल्ली के पेड़ पर चढ़ने से लेकर किसी अभिनेता की छींक तक ब्रेकिंग न्यूज हो जाती है। लोगों को खुद से बांधे रखने की कोशिश ने पूरी परिभाषा ही बदल दी है। क्या ब्लॉगर होकर आप इतने व्यक्तिगत स्तर से पेशेवर हो सकते हैं। नहीं हो सकते। क्योंकि यहां पैसा कोई महत्व नहीं रखता। अगर किन्हीं के लिए रखता है, तो उन्हें दूर से ही सलाम करता हूं।
फोटो गुगुल से साभार
4 comments:
पत्रकारिता और ब्लागिंग में यही फकॆ है। एनोनिमस भाई साहब ने सीधे नाम लेकर टिप्पणी कर दी। कोई कैसा है, ऐसा कहने या दावा करने से पहले, उन्होंने कुछ सोचा। नहीं सोचा। क्योंकि ब्लाग जगत को कुछ लोगों ने व्यक्तिगत कुंठा और आक्षेप जताने का मंच बना रखा है। एनोनिमस भाई साहब को यह खराब लग सकता है, लेकिन सच यही है। पत्रकारिता में किसी पर जब आप आक्षेप या आरोप लगाते हैं, तो उससे संवाद करना या पक्ष लेना जरूरी होता है। सामान्य शिष्टाचार भी यही है कि आरोप-प्रत्यारोप लगाने से पहले दूसरे पक्ष की भावनाओं का भी ख्याल रखा जाये। जिस दिन ब्लाग में लिखनेवाले इतने परिपक्व हो जायेंगे कि दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखने लगेंगे, उस दिन सचमुच मीडिया के अंग होने का दायित्व निभाना शुरू कर देंगे। इसलिए ही मैंने पोस्ट के शुरू में ही कहा है कि हिन्दी ब्लाग जगत ने अभी दौड़ना शुरू किया है।
प्रभात जी, आपकी बात सही है.Anonymous ने शिष्टाचार नहीं बरता. मैं आपकी बात का सम्मान करता हूं.लेकिन संजय़ तिवारी जैसों के लिए जितना कुछ लिखा जाए, कम है. संजय जी के साथ दिक्कत ये है कि वे चुरा-चुरा कर बिना जानकारी के किसी के भी लेख उठा कर छाप लेते हैं. कोई पूछे तो आंख तरेर कर कहते हैं कि हमने कौन सा गुनाह किया है. मजेदार बात ये है कि उनके विस्फोट में वे खुद ही प्रतिक्रिया लिखते हैं, फिर उसे सीधे-उल्टे मेल आईडी के सहारे बहस में रुपांतरित करने की कोशिश करते हैं. मतलब पहले लेख पब्लिश करो, फिर उस पर खुद ही प्रतिक्रिया लिखो, फिर उस प्रतिक्रिया का खुद जवाब दो....वाह रे विस्फोट...!
प्रभात भाई, यदि बहस करवा पाने का दम नही है तो बहस करवाते ही क्यो हो। संजय तिवारी के इतने ही पिछ्लग्गू हो तो उससे कहो कि सामने आये और बहस करे। टिप्पणी हटाकर आप अपना छोटापन दिखा रहे हो। दम हो तो संजय तिवारी को सुधार कर दिखाइये।
अनमोल, गाजियाबाद
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