
प्रेस दिवस बीत गया, लेकिन इस बहाने एक नयी बहस वतॆमान मीडिया के स्वरूप पर छिड़ गयी है। मैं तो सीधे तौर पर कहना चाहूंगा कि ये बहस दो स्तर पर होनी चाहिए। इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के स्वरूप पर। मीडिया में तो दोनों आते हैं।
इधर जो स्वरूप इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अख्तियार किया हुआ है, वह प्रिंट मीडिया से बिलकुल अलग है। आज के दौर में जब इलेक्ट्रानिक मीडिया पूरी तरह से आम जनजीवन का हिस्सा बन चुका है, तो किसी भी प्रकार की बहस उसे ही केंद्रबिंदु मानकर उसके इदॆ-गिदॆ सिमट कर रह जाती है। बहस में मी़डिया के नाम पर इलेक्ट्रानिक मीडिया को ही पेश किया जाता है। और प्रिंट मीडिया का अस्तित्व गौण हो जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूरे समुद्र में सतह पर दिख रहा पानी ही इलेक्ट्रानिक मीडिया का स्वरूप है। गहराई में मौजूद पानी ही प्रिंट मीडिया है। जो इतना विशाल है कि उसके सामने इलेक्ट्रानिक मीडिया कुछ भी नहीं है।
बहस टीआरपी की होड़ पर होनी चाहिए। मुनाफा और पैसे के मुद्दे ने ही सारा एंगल चेंज कर दिया है। चश्मे के लिए गलत शीशे का इस्तेमाल शुरू हो गया है। जाहिर है, आगे भी दृश्य धुंधला ही दिखेगा। मामला ये है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी के खेल में खुद उलझ कर रह गया है। हर चैनल का मालिक हर सप्ताह अपनी टीआरपी रेटिंग बढ़ाने के लिए जोर लगाये रहता है। पहले जो बात महीनों में होती थी, वह अब सप्ताह पर आकर टिक गयी है। इस बढ़ी प्रतियोगिता ने शायद इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए पूरे मायने को बदल कर रख दिया है। सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर कभी कभार ही जैसे कोसी में आयी बाढ़, जैसी स्थिति में इलेक्ट्रानिक मीडिया दायित्व का निवॆहन करता दिखता है। नहीं तो हाल में ही घटित आरुषि हत्याकांड में जैसा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इलेक्ट्रानिक मीडिया ने किया,वह यह बताने के लिए काफी था कि टीआरपी की होड़ में इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी सारी जिम्मेदारियां भूल चुका है। अब पत्रकार भी इस पूरी परिस्थिति को लेकर चिंतित दिखाई पड़ रहे हैं। होना भी चाहिए।
जहां तक प्रिंट मीडिया की बात है, तो प्रिंट मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी से कभी मुंह नहीं मोड़ा। प्रिंट मीडिया चुपचाप अपना काम करती रही है। बस बात यही है कि इस अनचाहे शोर में उसकी आवाज कहीं दब सी गयी है। लेकिन बोले हुए शब्दों से ज्यादा असरदार लिखे शब्द ही होते हैं। क्योंकि वे लंबे समय तक अपना असर छोड़ जाते हैं। समय की रेत भी उसे मिटा नहीं सकती है। आप सौ साल बाद भी उसके असल स्वरूप को बतौर दस्तावेज प्रस्तुत कर सकते हैं।
इधर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भागती जिंदगी को पकड़ने की कोशिश में जो रास्ता अख्तियार किया है, उससे उसमें काम करनेवाले पत्रकार भी बेचैन हैं। बेचैनी सबमें है। मामला आतंकवाद का हो या पृथ्वी के खत्म हो जाने जैसी बात को विश्वसनीय बनाने की जद्दोजहद का, हर जगह पर इलेक्ट्रानिक मीडिया गैर-जिम्मेदार नजर आता है। जिस दिन यह मुनाफे की होड़ खत्म हो जायेगी, उस दिन खुद ही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपना जिम्मेदार स्वरूप अख्तियार कर लेगा।
जहां प्रिंट मीडिया की बात है, तो प्रिंट मीडिया प्रतिस्पद्धा के दौर में और मजबूत ही हुआ है। क्योंकि यह अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता है। क्योंकि दूसरे दिन भी लिखे हुए शब्द अपना असर जरूर रखते हैं।
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