Thursday, November 20, 2008

अब मेरी खिड़की पर छोटकी गोरैया क्यों नहीं बैठती?

गिद्धों और कौओं की जनसंख्या घट रही है। चिंता का विषय है। एक वरिष्ठ साथी ने इस संदभॆ में रोचक लेख लिखा। अच्छा लिखा। उनके द्वारा लिखे गये संस्मरणों ने हमारी भी बचपन की यादें ताजा कर दीं। जब तक हम स्कूल में रहे, हम अपने घर के कोनों में गोरेयौं द्वारा घोंसले बना लेने से परेशान रहते थे। गोरेयौं की चहकती दुनिया से दिन की शुरुआत होती थी और घर के मुंडेर पर कौए के कांव-कांव से किसी अतिथि के शुभ आगमन का आभास होता था। मैं जहां रहता हूं यानी रांची में, वह कभी ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। यहां चारों ओर हरियाली थी। पहाड़ी की चोटी से आप शहर को हरे रंग से ढका महसूस कर सकते थे। लेकिन अब वहां से सिफॆ कंक्रीट के जंगल नजर आते हैं। न वह हरियाली है और न वह ठंडी मोहक हवा।
समय के साथ पेड़ कटते चले गये। यहां अब कॉलोनियों और बिल्डिंगों के जगंल इस शहर के हमराज बन गये हैं। रोज रिपोटॆ आती रहती है। याद आता है कि एक राष्ट्रीय पत्रिका में इस मामले को लेकर विशेष लेख छपा था। तब यह मामला काफी उछला था और लोगों का ध्यान इस ओर गया था। रोज कटते जा रहे जंगल और पेड़ों ने इन पक्षियों के बसेरों को उजाड़ डाला है। २४ घंटे में १२ घंटे आफिस में गुजारनेवाले हम लोग इस बारे में अनजान रहे। हमें चिड़ियों की चहचहाहट और कौओं के कांव-कांव से कोई मतलब नहीं रहा। कोयल की कुक और मैने की मिठास भी याद नहीं रही। अब मामला सिर से ऊपर जा चुका है। हम जिस मोबाइल का उपयोग करते हैं, उनकी रेडियो तरंगे भी इन छोटे पक्षियों को नुकसान पहुंचा रही हैं। क्योंकि इनके छोटे दिल इन तरंगों का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसी कारण इन गोरेयौं और छोटे पक्षियों की संख्या में काफी घटी है। अब कौए का कांव-कांव और गौरेये की चहचहाहट काफी कम दिखती है। आप भी यह जरूर महसूस करते होंगे। रोजमराॆ की जिंदगी में उपयोग किये जानेवाले रसायनों ने भी इन पक्षियों को काफी नुकसान पहुंचाया है। जरा सोचिये प्रकृति के साथ हो रहा खिलवाड़ हमें कहां ले जायेगा। गंगा नदी तो संकट में है ही, इन पक्षी बेचारों को मानवीय उन्नति ने अपना शिकार बना डाला है।

3 comments:

अभिषेक मिश्र said...

कोई भी संवेदनशील व्यक्ति आपकी ही तरह इस पीडा को महसूस करेगा. झारखण्ड से जुड़े एक और ब्लॉग को देख अच्छा लगा. स्वागत आपका अपनी विरासत को समर्पित मेरे ब्लॉग पर भी.

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छा लगा आपको पढकर। मै भी झारखंड , बोकारो से ही हूं।

विधुल्लता said...

आपकी बात से सहमत हूँ ,आज ही भोपाल के एक अखबार मैं ख़बर है इस मौसम मैं आने वाले प्रवासी परिंदों को भोपाल के आस-पास रहने वाले ग्रामीण फ्लुरैड्स नामक जहरीला पदार्थ दाने मैं मिलाकर बेहोश कर देतें हैं और बेच देतें है ,ये पक्षी सोहराब ,और विदेशी जलमुर्गी हैं इनमें आस्ट्रेलियाई पक्षी भी शामिल है ये उनके गोश्त का सवाद लेने के लिए भी ऐसा कर रहें है ,दुःख की बात है ...

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