ब्लागरी करनेवाले भी तरह-तरह हैं। कोई सीधा-सादा, तो कोई टेढ़ा। शायद ब्लागरी करना भी कुशती लड़ने के जैसा हो गया है। अगर कोई सहमत है, तब तक तो ठीक है, लेकिन यदि कोई असहमत हुआ, तो काटो तो खून नहीं। ब्लॉगरी की अनोखी दुनिया के खुले मंच में बिना आवाज के जब आप शब्दों के सहारे भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करते हैं, तो एक अनजानी से ताकत आ जाती है। सामने कोई खड़ा नहीं होता। लेकिन शब्दों की दीवार के सहारे जब कोई आपकी अभिव्यक्ति को रोकता है, तो आप तिलमिला जाते हैं। या फिर झल्ला कर मैदान ही छोड़े जाते हैं। शायद ऐसा ही कुछ ब्लागरों के साथ भी हो रहा है या हो रहा होगा।
दो दिन पहले टिप्पणी को मॉडरेट करने का मामला बड़ा जोर-शोर से उठा था। एक साथी ब्लागर ने टिप्पणियों को लेकर बरती जा रही तानाशाही पर उंगली उठायी। बात सही भी है। जब आप स्वतंत्र मंच से अभिव्यक्ति करते हैं, तो प्रशंसा के साथ आलोचकों का भी स्वागत करना चाहिए। हां सतही आलोचना ठीक नहीं होती। लेकिन जहां तक किसी के द्वारा सीधे मैदान छोड़ने की बात की जाती है, तो वह उचित नहीं है। डटे रहिये, टकराइये और सामनेवाले को अपनी जूझने की ताकत का अहसास कराइये।
हम तो हमेशा कहेंगे, आप भी मिलके कहो
लेट्स रॉक
Wednesday, November 12, 2008
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5 comments:
सही कहा....
जी, सत्य कथन
यही तो मेरा भी कहना था, कि जो भी करो डटकर करो, ये नहीं कि "मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू", जब ब्लॉग को लेखक ने सार्वजनिक किया है और उस पर टिप्पणी मंगवा रहे हैं तो उसे आलोचना सहना भी आना चाहिये, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा…
सही कहा..आलोचनाओं का स्वागत है. बस, अभद्रता और असंयम से डर लगता है. बस, उसी हेतु मॉडरेशन का सहारा लेना पड़ता है.
सही कहा....
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