Tuesday, December 2, 2008

बंद कीजिये सेना की उपेक्षा

मेजर संदीप की शहादत के बाद उनके परिवार के प्रति की गयी दुखद टिप्पणी ने लोगों की भावना को ठेस पहुंचायी है। चार दिन बीते नहीं कि सबकुछ भूलकर सियासत करनेवाले नौटंकी करने पर उतर गये हैं। जब सिर पर से पानी गुजर रहा है और मशीनगनों की गोलियां घर पर आकर बरसने लगी हैं, तब इन दिल्ली में बैठनेवालों को भी एनएसजी को मजबूत करने की याद आयी है। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब वेतन बंटवारे के मामले में सैनिकों को दिल्ली में बैठे बाबुओं ने पतली गली दिखा दी थी। धिक्कार है, इस देश के उन राजनेताओं पर,जो देश पर सिफॆ राज करने की सोचने लगे हैं। इस बार आतंकवादियों ने घर में घुसकर हमला कर हमारी अपनी औकात की याद दिला दी है। दिल्ली और मुंबई में एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है, ये जाहिर हो चुका है। पाकिस्तान को लेकर कितना भी ब्लेम गेम खेल लें, लेकिन जो खेला सैनिकों के साथ लगातार किया जा रहा है, क्या वह नजरअंदाज किया जा सकता है। नक्सली हिंसा में हर साल कई पुलिसकमीॆ मारे जा रहे हैं। नक्सलियों के रेड कोरिडोर पर न जाने कितनी बार विस्तार से बातचीत हो चुकी होगी। लेकिन आज तक सिफॆ योजनाएं बन रही हैं। झारखंड में नक्सली सरेआम बैंकों के सात करोड़ रुपये लूटकर चले जाते हैं। हिंसा की घटनाओं को अंजाम देते हैं, लेकिन कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। कोई ठोस पहल नहीं होती। बस एक बात होती है कि नक्सलियों से सिफॆ सेना ही निपट सकती है। आप बोलते हैं कि सेना निपट सकती है और सेनाओं की इतनी उपेक्षा करते हैं कि उनके पास निराशा व्यक्त करने के लिए भी दो शब्द नहीं होते। आखिर सैनिकों के साथ नाइंसाफी कब तक होती रहेगी। जो हमारी रक्षा करने के लिए तैयार हैं, हमें उनकी देखरेख के लिए भी उतना ही जिम्मेदार बनना होगा। एक मैनेजर लाखों रुपये पाकर ऐश की जिंदगी जीता है और सैनिक सीमा पर जिंदगी बीताने के बाद महज कुछ हजार रुपये पर जिंदगी गुजारने को विवश रहता है। ये दोहरा पैमाना हम कब तक अपनाते रहेंगे।

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