मेरी भी जिंदगी थी। तेज रफ्तारवाली। पर जिस दिन से गोली के धमाकों की आवाजें सुनीं, एक डर मन के किसी कोने में बैठ गया है मारे जाने का। सोचता हूं कि (थोड़ा नकारात्मक)क्या मेरी ये जिंदगी बस इन्हीं कांडों को देखते गुजर जायेंगी। सोचता हूं कि ये आतंकी जब कहर बरपाने निकले होंगे, तो इनके मन में कैसा दरिंदगी भरा जुनून होगा? सोचता हूं कि क्या इन्हें अपने परिवार से कोई मोह नहीं होगा?
उफ, ये छटपटाहट चार दिन बाद भी बरकरार है।
सूरज निकला २७ नवंबर को भी
लालिमा लिये
लेकिन उस दिन की सुबह कुछ दूसरी थी
हमसफर बनने का जुनून लिये
दरिंदगी जिसका हमसाया था
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हम टीवी से चिपके रहे
उगते सूरज को न देख पाये
पूरी रात हमारे भाई
उस ताज होटल में
घिरे रहे, आतंकियों के बीच
झर-झर गिरते मां और बहनों के आंसू
याद दिला जा रहे थे
उनके बारे में
जो हमारी जिंदगी में भी खास थे
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मुझे पता चला
मेरा भी एक है इनके बीच
क्या फिर मिलूंगा
या वो अंतिम दिन.....
यही मन में सोचता रह गया
लगातार.....
Tuesday, December 2, 2008
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