चलिये भाई शिवराज अंकल गये, आरआर पाटिल भाई साहब नपे। अब विलास राव जी भी जायेंगे या शायद जानेवाले हैं (जैसा कि अभी तक की रिपोटॆ मिल रही है)।
अब इससे क्या फकॆ पड़ता है, कौन आया, कौन गया, जिन्हें जो करना था, वो तो करके चले गये।
लेकिन गौर करिये फिल्मवालों को अब एक तगड़ा मसाला मिल गया है। शायद काम भी कहानी लिखने पर शुरू हो जायेगा। एक फिल्म जरूर आयेगी, जिसमें हीरो बिना जख्मी हुए दो हजार आतंकियों को मार गिराते हुए हीराइन को बचाते हुए बाहर निकल जायेगा। तीन घंटे का भरपूर मसाले से भरा पिक्चर होगा। हम ताज पर हमले को भूल हीरो की जीत पर ताली बजाते हॉल से निकलेंगे। लानत है, हमारी इस मानसिकता पर।
अब हम फिल्मों में ही सिफॆ कंधार में आतंकियों को मारकर सीधे सुरक्षित देश लौट सकते हैं। असल जिंदगी में तो पूरा मामला ही उलट है। ऐसा क्यों है, जरा हम अपनी अंतरात्मा से पूछें। क्यों फिल्मों के सहारे कुंठा को शांत करने की कोशिश होती है? असल जिंदगी के हीरो को आप दो दिन याद कर भूल जाते हैं, लेकिन जो नकली हीरो हैं, आप उन्हें संसद तक पहुंचाते हैं। जिन्हें अपने देश की नीतियों को दो बातों की भी जानकारी नहीं होती। लानत है हमारी इस मानसिकता पर।
मानिये या न मानिये, ये जो आज देश का हाल है, उसके पीछे हमारी अपनी गंदी मानसिकता ही है। जब संसद में अपराधी और ऐसे लोगों, जिन्हें हमारी नीतियों की जानकारी नहीं होती, को हम चुनकर भेजते हैं, तो आप क्या उम्मीद करते हैं कि वे आपकी सुरक्षा के लिए पुख्ता इंतजाम करेंगे। अपनी सोच बदलिये। अपनी मानसिकता बदलिये। तभी हम सुरक्षित होंगे।
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