Saturday, December 6, 2008
मरती संवेदनाएं के अंतरजाल में
५ दिसंबर को रांची के राहे ओपी में नक्सली हमले में पांच जवानों की मौत हो गयी थी। पहले की तरह जैसे ही इस घटना की खबर लगी, हमारे जेहन में बतौर अखबारनवीस सक्रियता का दौर थोड़ा ज्यादा ही तेज हो गया। पहले के नक्सली हमलों में हम हमेशा कवरेज बेहतर देने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन इस बार एक अलग परिवतॆन इन घटनाओं के प्रति होनेवाले रिस्पांस में देखने को मिला। मुंबई आतंकी हमले के बाद मौत और घटनाओं को भी शायद स्तर के आधार पर देखा जाने लगा है। शायद पहली बार मैंने महसूस किया कि हमारे बीच कायम संवेदनाओं में बफॆ का ठंडापन घर करता जा रहा है। लोगों ने इन घटनाओं को शायद अपने जीवन का हिस्सा मान लिया है। हमारी चेतना का जड़ शून्य होते जाने के पीछे कहीं न कहीं मीडिया का भी योगदान है। किसी चीज को बार-बार देखने से जैसे रुचि खत्म हो जाती है, वैसे ही हमारी संवेदना शायद इन घटनाओं को देखते-देखते अब ज्यादा नाजुक नहीं रही, कठोर हो चली है।
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2 comments:
संचार माध्यमों का कर्तव्य है ख़बर और सूचना को जल्द से जल्द आम आदमी तक पहुँचाना. यदि एक दिन में सौ अप्राध्द होते हैं और सौ ही बार मीडिया उनकी रिपोर्टिंग करती है, तो इसमें मीडिया की कोई गलती नहीं है. गलती है तो उन अपराधियों की जिन्होनें सौ बार अपराध किया, उस प्रशासन की जिसके रहते अपराध हुआ, और उन लोगों की जिन्होनें ऐसा निकम्मा प्रशासन चुना. बढ़ते अपराध का "साइड इफेक्ट" है कि लोगों की चेतना बर्फ-सी ठंडी हो चुकी है, लेकिन ऐसा स्वाभाविक है.
एक दिन हमारी ट्रेनें झारखण्ड बन्द के कारण रास्ता बदल कर आ रही थीं। मैने अपने समधी जी को फोन किया जो गिरिडीह में कहीं दौरे पर थे। उनसे पूछने पर कि बन्द क्यों किया गया है, उन्होने अनभिज्ञता जताई - यहां तो जब मन आये कर देते हैं।
हम भी ट्रेन डायवर्शन को रुटीन मानने लगे हैं। :(
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