Friday, December 12, 2008

जरूरत खुद के बनाये गये एकांत को तोड़ने की है


शिखर का एकांत

यह वाक्य खुद में गजब का दशॆन लिये हुए है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कम शब्दों में व्यक्ति इतना कुछ कह जाता है कि उसके बाद किसी लेख की जरूरत महसूस नहीं है।

इन तीन शब्दों में मन में चल रहे द्वंद्व को तीन शब्दों में पिरो कर रख दिया गया है। वैसे यह इस शासन प्रणाली की त्रासदी है कि जो अधिकारी जितनी ऊंचाई पर चलते जाते हैं, उनका क्षेत्र तो उतना ही व्यापक हो जाता है, लेकिन उनकी रूटीन एक केबिन में कैद होकर रह जाती है। आप मानिये या न मानिये ज्यादातर अधिकारी स्तर के व्यक्ति इसी रूटीन और नियम में जिंदगी गुजार देते हैं।

रिटायर होने के बाद जीवन की खुशियों को पाने का उनका प्रयास रहता है, लेकिन टूटती भारतीय सामाजिक प्रणाली उन्हें वो खुशियां नहीं देती। जब आप अधिकारों से सुसंपन्न व्यक्ति होते हैं, तो आपका इगो फौलाद का हो जाता है। आपके अहं को तब चोट पहुंचती है, जब कोई छोटा आपकी खींची गयी लक्ष्मण रेखा को पार करता है।

लेकिन जो सच्चा कमॆयोगी होता है, वह अपने इगो को कमतर कर अपने करमों से ऐसी मिसाल पेश करता है, जो एक उदाहरण बन जाता है। महान इंजीनियर विश्वेश्वरैया के जीवन को कौन नहीं जानता। एक-एक मिनट की कीमत का उन्हें पता था। नेहरू प्रधानमंत्री होते हुए भी खुद से ज्यादा काम करने को तरजीह देते थे। पूवॆ राष्ट्रपति अबुल कलाम ने राष्ट्रपति भवन की रूपरेखा को अपनी सकारात्मक कायॆशैली से बदल कर रख दिया। किरण बेदी ने तिहाड़ जेल की पोस्टिंग को गोल्डन पोस्टिंग में बदल कर रख दिया।

जरूरत खुद के बनाये गये एकांत को तोड़ने की है। आपमें हममें अपनी जिम्मेदारियों को दूसरे के ऊपर रखकर आगे बढ़ने की आदत हो गयी है। इसलिए जब हमारे पास कुछ करने को नहीं रहता है, तो हम एकांत महसूस करते हैं। वैसे भी आदमी भीड़ में रहते हुए भी जनसरोकारों से अछूता रहने से अकेला ही महसूस करता है।

आज मैंने छोटा मुंह बड़ी बात कह दी। लेकिन सीधा बोलना घुमा-फिराकर बोलने से ज्यादा अच्छा है।

6 comments:

Vivek Gupta said...

सही लिखा है आपने |

विवेक सिंह said...

ओहो तो ये लेख वैसा है . हम सोचे इसका उससे कोई रिलेशन होगा . वैसे ठीक है .

दिनेशराय द्विवेदी said...

शिखर का एकांत तोड़ने के लिए शिखर से नीचे आना पड़ता है। एवरेस्ट पर जमी बर्फ का कतरा कभी पानी की शक्ल मे सागर तक पहुंचता ही है।

PD said...

आपसे सहमत हूं इस बात पर..

Gyan Dutt Pandey said...

रमानाथ अवस्थी की कविता याद आती है -

भीड़ में भी रहता हूं वीराने के सहारे
जैसे कोई मन्दिर किसी गांव के किनारे
---
तन की थकान तो उतार ली है पथ ने
जाने कौन मन की थकान को उतारे
---
जैसा भी हूं वैसा ही हूं समय के सामने
चाहे मुझे नाश करे, चाहे ये संवारे

prabhat gopal said...

gyan sir aapki har bat anokhi hai. gajab ki kavita ka ullekh kiya hai

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