
ये चारों चीजें आपस में इस तरह गुंथी हुई हैं कि इन्हें अलग करना संभव नहीं प्रतीत होता। २० साल पहले बाबरी मसजिद के गिरने के बाद देश एक कंफ्यूजनवाली स्थिति में प्रवेश कर गया था। उसके बाद शुरू हुआ हिंसा का दौर आज तक थम नहीं रहा। अब ब्लेम गेम के सहारे राजनीति को आजमाने की कोशिश हो रही है। असली मुद्दा इन पॉलिटिशियनों ने पीछे छोड़ दिया है। बाद के सालों में भाजपा सत्ता में आती भी है, लेकिन इनके नेताओं का ग्रास रूट लेवल से टच नहीं रहा। इनके खुद के कायॆकताॆ छला महसूस करने लगे। जिस कारण भाजपा अपने पुराने गढ़ झारखंड जैसे राज्य में हारती है, बुरी तरह हारती है। इसके कभी प्रमुख सेनापतियों में रहे नेता खुद इस पाटीॆ से अलग होते चले जाते हैं। मामला ये है कि जिन मुद्दों को सामने रखकर ये पाटीॆ सत्ता में आती है, उससे ऊपर उठ कर उन सारी परंपराओं को आगे बढ़ाती है, जो कांग्रेस या अन्य दल हर साल करते रहे। राजनीतिक हाय-तौबा, हिंसा और एक-दूसरे पर आरोप मढ़ कर जनता को बेवकूफ बनाने का सिलसिला आज तक चालू है। मुंबई हिंसा के बाद गैर-जिम्मेदाराना बयानों और व्यवहार के कारण कांग्रेस को खुद की जमीन खोखली होती नजर आती है और वह अपने तीन सिपहसलारों से इस्तीफे ले लेती है बिना हिचक के। ये स्थिति है। अराजकता, अव्यावहारिक नजरिया और खुले तौर पर निलॆज्जतापूवॆक हठ करने की कोशिश आज के नेताओं के व्यवहार में नजर आ रही है। कोई स्पष्ट परिदृश्य सामने उभर कर नहीं आ रहा, जिस पर कि सारे दल ठोस रणनीति बनाकर सामने आयें। देखना ये है कि अब इन सारी घटनाओं के बाद आगे भारतीय राजनीति क्या रुख करती है?
2 comments:
क्या आपको लगता है कि दूसरा पाकिस्तान नही बनेगा. ६२ साल किसी इन्सान के लिए लंबा समय होता है देश के लिए नही. फिर जब बंटवारा होगा तो कोई अली खान उसका समर्थन ही करेगा. ऐसा नही है कि सभी ने समर्थन किया हो पर बंटवारा तो हुआ. विरोध हुआ था क्या. आप अगले २५ साल में देख लीजियेगा. अभी देश कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी कि हालत ख़राब है.
धर्म, क्षेत्र और भाषा की राजनीति बन्द कीजिए। कोई विभाजन नहीं होगा।
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