Friday, January 30, 2009
कुछ खास है हिन्दी बेल्ट की पत्रकारिता में
ज्यादा नहीं घूमा हूं। दुनिया क्या, भारत के उन हिस्सों में भी नहीं गया, जहां जा सकता हूं। लेकिन देखकर, जानकर एक छुअन भरा अहसासभर जरूर है। पत्रिकाओं और अखबारों के पन्नों को पलट कर देश की आत्मा को जानने की कोशिश करता हूं। कितना सफल या विफल हूं, वो तो वक्त बतायेगा। लेकिन एक बात कहने को जी मचलता है कि हिन्दी बेल्ट की पत्रकारिता में कुछ है। (ऐसा पूरे देश की मीडिया का विश्लेषण करने के बाद लगा)। कुछ ऐसा कि यहां की पत्रकारिता हमको जिंदगी को छूती हुई लगती है। भावनाओं को उभार कर पन्नों पर उड़ेल देने को विवश कर देती है। कई पत्रकारों को देखता-पढ़ता आया हूं। कुछ-कुछ अभी भी साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी रिपोरटें शब्दों के साथ जेहन में हैं। उसी कड़ी में उदयन शमाॆ जी जी की फूलन देवी के समपॆण के समय की रिपाताजॆ पढ़ने को मिली थी (शायद रांची के ही किसी दैनिक में फिर से बतौर संस्मरण छापी गयी थी)। तब से अब तक एक आम व्यक्ति की तरह हिन्दी बेल्ट की पत्रकारिता का विश्लेषण करता रहा। नक्सली हिंसा, भ्रष्टाचार, बिखरता सामाजिक तानाबाना और भ्रष्ट होती व्यवस्था की पोल खोलती रिपोरटें मन को रोमांचित कर जाती थीं या हैं। मन में एक सवाल उठता है कि क्या इतने सारे समीकरण हिन्दी बेल्ट के इतर कहीं और मिलेंगे। क्या इतना मसाला बतौर समाज सिफॆ हिन्दी बेल्ट ही दे सकता है या कोई और क्षेत्र भी इतने ही समीकरण लेकर रहता है? भले ही अन्य राज्य या दिल्ली आरथिक विकास की दौड़ में आगे रहते हैं। लेकिन उनके सामने बिखरते सामाजिक समीकरण के उतने स्वरूप उभरते नहीं मिलेंगे और न ही इतनी बहस और शोर शराबे का सिलसिला। नीतीश, लालू , रामविलास, मायावती पूरे देश की राजनीति में केंद्रबिंदु बने रहते हैं। ये तो हिन्दी बेल्ट की राजनीति और समीकरणों का ही कमाल है, जिनकी लहर पर सवार होकर इन नेताओं की नौका तैरती रहती है। स्वस्थ पत्रकारिता के पैमाने पर भी हिन्दी बेल्ट लोगों के ज्यादा करीब है। यहां के पत्रकार यहां के लोगों की आत्मा की छुअन को ज्यादा महसूस करते हैं। कम से कम टीआरपी की होड़ में नेशनल मीडिया का जो स्वरूप बिगड़ा हुआ है, वह क्षेत्रीय स्तर पर अभी तक बचा हुआ है। ये और कुछ उन जिम्मेवार पत्रकारों की ही बदौलत संभव हो सका है, जो किसी भी हालत में संयम की रेखा को नहीं लांघते। मीडिया ने चारा घोटाले से लेकर अब तक बिहार-झारखंड में कभी भी पत्रकारिता के स्तर को गिरने नहीं दिया। हमेशा उस दायरे को बरकरार रखा, जो होना चाहिए। होड़ यहां भी है, प्रतियोगिता भी, लेकिन एक सम्मानजनक संतुलन के साथ। शायद इसलिए जब भी बाहर के अखबारों को देखता हूं, तो मन उन अखबारों के पन्नों में वही सामग्री खोजती है, जो मैं अपने स्थानीय अखबारों में पाता हूं। लेकिन उन्हें नहीं पाता। इतने बिखरे समीकरणों को समेटे रिपाताजॆ और गंभीर लेख सिफॆ यहां के अखबारों में ही नसीब होता है। अब देखना ये है कि आनेवाले समय में भी हिन्दी बेल्ट की पत्रकारिता का यही स्वरूप बरकरार रह पाता है या नहीं।
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1 comment:
ऑफ-लेट हिन्दी समाचार पत्र गहनता से पढ़े नहीं। हिन्दी बिजनेस स्टेण्डर्ड जरूर रुचता है।
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