Wednesday, January 28, 2009

इस सड़कछाप सोच से हम कब ऊपर उठेंगे?

किसी छोटी बच्ची के चेहरे पर जब खुशी के भाव देखता हूं, तो मन तृप्त हो जाता है। एक अद्ऽभुत आनंद की अनूभूति होती है। लेकिन दूसरे ही पल एक असुरक्षित होते जा रहे सामाजिक परिवेश का खाका जेहन में तैर जाता है।
कई लेखों में नारी स्वतंत्रता के नाम पर बिना आधारवाली बहस, मंगलौर में हाल में घटी घटना, बेटियों को परिवार में कम महत्व देने की परंपरा जैसी बातें कई चीजें सोचने को मजबूर करती हैं।
हाल में जिस प्रकार एक खास ब्लाग पर स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर जैसी बहस चली और उसमें कमेंट्स आये, उसने कम से कम ब्लागरों में जारी तूफान को साफ रेखांकित किया है।
किसी भी परिवतॆन को सकारात्मक कब कहा जायेगा?
जब समाज में हर वगॆ के प्रति सुरक्षा का वातावरण बने
जब एक वगॆ दूसरे के प्रति स्वस्थ और सकारात्मक चिंतन रखे

सेक्स जैसे मुद्दे भी काफी बहस की गुंजाइश रखते हैं, लेकिन इसके लिए सड़कछाप सोच से ऊपर उठने की कवायद होनी चाहिए। जब आप लिंग, जाति या किसी सीमारेखा के बारे में बात करते हैं, तो संयम की आवश्यकता होती है। ये बात साफ है कि लिखनेवालों की शैली भाषागत दृष्टिकोण से अभिजात्य वगॆ की है। उनमें एक बुद्धिजीवी होने का अहं झलकता है। शायद खुद को समाज के मागॆदशॆक के रूप में वे पेश करते हों।
बात सेक्स जैसे मुद्दे से हटाकर यदि थोड़ा कम विवादित शराब पीने की बात से करें। तो क्या आप महिला वगॆ को शराब सेवन के लिए पुरुष जैसी छूट देने की कवायद को तवज्जो देंगे? एक ऐसी आदत जिसने कई लोगों को बरबाद कर रख दिया। महिला होने के मामले में सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि प्रकृति ने उसे मां बनने का अधिकार दिया है। किसी भी बच्चे की परवरिश के लिए मां पिता की तुलना में ज्यादा महत्वपूणॆ भूमिका निभाती है। उस लिहाज से मां की जिम्मेवारी पिता की तुलना में ज्यादा बढ़ जाती है। वैसे में नारी स्वतंत्रता के नाम पर होनेवाली बहस में जीवन से जुड़े इस महत्वपूणॆ पहलू को आप कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। बहस के दौरान इसका ध्यान रखना सबसे ज्यादा जरूरी है।

दूसरी बात कि नारी स्वतंत्रता के नाम पर घर को संभालनेवाली महिला को दोयम दरजे का बतानेवाली संस्कृति को हमारे देश में बिना गहराई में जाये बढ़ावा दिया जाता रहा है। आप बहस करिये, लेकिन इतना भी नहीं कि बहस ही मूल मुद्दे से भटक जाये। थोड़े दिनों पहले महिलाओं के पुरुषों की तरह अभद्र व्यवहार करने को लेकर बहस हुई। उसमें भी पूरा मुद्दा भटक सा गया था। गलत शब्दों का प्रयोग हमारी कुंठा को साफ रेखांकित कर गया था।

बहस इन मुद्दों पर हो कि स्त्री के खिलाफ हिंसा को कैसे कम किया जाये। कैसे महिलाओं को ऐसा सुरक्षित माहौल मिले कि उनमें आत्मविश्वास आये और इन बेकार की बहसों की जरूरत न पड़े। बहस या चरचा के कई बिंदु हो सकते हैं। बहस में आक्रामकता का बोध भी कई बार मूल मुद्दे से भटका देता है। जरूरत इन सबको ध्यान में रखकर चरचा को आगे बढ़ाने की है।

2 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

महिला विषयक मामले में तो कतराकर निकल जाना उचित है। हिन्दी ब्लॉगजगत में स्वस्थ बातचीत सम्भव नहीं इस मामले पर।

अभिषेक मिश्र said...

Afsos isi baat ki hai ki asuvidhajanak muddon se log katra kar nikal jana hi behtar samajhte hain.

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