
काफी लोग एक अजीब बात करते हैं, गांव में जाकर जीवनयापन करने की, शहरी आपाधापी से दूर शांत और हरियाली के बीच। लेकिन गांव की जिंदगी को अंदर जाकर देखिये, कम होती गांव की जनसंख्या, इलाज के लिए तरसते आम ग्रामीण और उनके निम्न जीवनस्तर को झेल पाना आसान नहीं होगा। सच्चाई ये है कि आज भारत के गांव में बूढ़ों की फौज है। जवान गांव छोड़ कर शहरों की ओर पलायन कर गये हैं। जो बचे हैं, वे हताश होकर बस समय गुजारने की कोशिश करते हैं।
हमारी सरकार भी शहरों की ही उन्नति की बातें करती हैं। झारखंड के दस से अधिक जिले उग्रवाद प्रभावित हैं। यहां उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में ग्रामीणों की जिंदगी काफी कहानी कहने को समेटे हुए है। इस सबके पीछे सिस्टम द्वारा उस विकास को नजरअंदाज करना है, जो इन गांवों को चाहिए। इन दस सालों में काफी कम राजनीतिग्यों को आप गांव के विकास की बातें करते पायेंगे। सेंसेक्स, विदेशी निवेश और हाइप्रोफोइल बातें और समाचार आज की मीडिया के अंग हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या करने की बातें हेडलाइंस नहीं बनतीं हैं और गांव में हो रहे परिवतॆन का उल्लेख कहीं मिलता नहीं है। अंदर की कहानी को बताये कौन? जो बतानेवाले हैं, वो रूपहले समुद्र के रूमानी संसार में गोता लगाते-लगाते खुद डूबते चले जा रहे हैं।
यही कारण है कि पटना, मुंबई, बंगलौर, दिल्ली तो सबकी जुबान पर हैं, लेकिन दूर, उपेक्षित और भुला दिये गये गांवों हमारे जेहन से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही दूर होते जा रहे हैं, वे गांव के लोग, जो हमारी जिंदगी के आधार अन्न को अपने परिश्रम से पैदा करने की जद्दोजहद में भिड़े रहते हैं। क्या आप-हम सोचेंगे उनके लिए?
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