एक काफी दिलचस्प बहस शुरू हुई है नये साल में। पटना को पेरिस और मुंबई को शंघाई न बना सकने को लेकर। एक बात कह सकते हैं कि ये बहस मन को गुदगुदानेवाली है। क्योंकि ये हमारे लिये एक सपने जैसा होगा। वैसा ही जैसा उदारीकरण के पहले फॉरेन मेड वस्तुओं के लिए था। अब जब सबकुछ आसानी से उपलब्ध हैं, तो नजरें हैं कि उठती भी नहीं हैं। जो चीज हाथ में नहीं हैं, उन्हें पाने को जी मचलता है, काश वो हमारे पास होती। लेकिन जब आ जाती है, तो मन उदासीन हो जाता है।
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व्यवस्था के मामले में मुंबई तो काफी दूर है शंघाई से। जब हम मुंबई की बात करते हैं, तो वहां आयी बाढ़ और ढीली सुरक्षा व्यवस्था हमारे सपनों पर चोट करती है। एक बात माननी होगी कि पश्चिम के लोग जहां भी गये व्यवस्था का निमाॆण किया। अंगरेजों ने हमें रेलवे, डाक और शिक्षा की बुनियादी व्यवस्था तैयार कर दी, जिस पर आगे बढ़ते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। उनमें एक इच्छाशक्ति साफ दिखती है। दूसरी ओर ये इच्छाशक्ति हमारे यहां नहीं दिखती। चीन ने ओलंपिक खेल का सफल आयोजन कर पश्चिम जगत को हैरान कर रख दिया और हमारे यहां एक औसत खेल के आयोजन में पसीने छूट जाते हैं। कम से कम पहली सीढ़ी के तौर पर हम बुनियादी चीजों और व्यवस्था को तो मजबूत करें।
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यदि नीतीश कुमार की शासन व्यवस्था की बात करें, तो वह बिहार को फ्रांस तो नहीं बना सके, लेकिन एक विश्वास जरूर पैदा किया है लोगों के मन में। १५ सालों में जजॆर हो चुकी व्यवस्था को सुधारने के लिए वक्त चाहिए, जो उन्हें मिलना चाहिए। पटना, दिल्ली या मुंबई जैसे शहर अब बढ़ती आबादी को बोझ ढो रहे हैं। गांवों से लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। गांव में अवसरों की कमी है। इस कारण जो भी सुविधाएं मौजूद हैं, वे भी कमतर होती नजर आती हैं। सरकार भी करे, तो क्या करे। गांव को कम से कम रोजगार के मौकों से जोड़ने की पहल हो, तो पटना क्या रांची जैसे शहर भी शंघाई बन जायें।
Friday, January 2, 2009
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