थोड़े दिन पहले राजस्थान के सीएम गहलोत जी के हाथों में हाथ डालकर लड़के-लड़कियों के साथ चलने पर बयान देने पर बवाल हुआ था। अब अगले बवाल के लिए १४ फरवरी भी आ रही है। खुली और परंपरागत संस्कृति के पक्षधर एक-दूसरे के सामने होंगे। सारे मामले हर साल उसी तरह रिपीट टेलीकास्ट की तरह-तरह सामने आते रहेंगे। इनके बीच सेंट्रल प्वाइंट है कि आखिर प्रेम क्या है? प्रेम का स्वरूप किया है। एक युवक जब किसी युवती को लाल गुलाब भेंट करता है या फिल्मों की तरह जब बेटी बाप से अपने पुरुष मित्र के लिए विद्रोह करती है।
स्कूल के समय का आकषॆण क्यों ३० साल की उम्र में कम हो जाता है। वह बात क्यों नहीं रहती?
अब महत्वपूणॆ सवाल है कि भाई-बहन, माता-पिता और बेटा या दादी-दादी और पोते के बीच भावनात्मक लगाव क्या प्रेम नहीं है। ऐसा क्या है कि प्रेम को सिफॆ लड़का-लड़की की मित्रता से जोड़ दिया जाता है।
प्रेम तो उस भावना को कहा जायेगा, जब कोई अपने मित्र के लिए अपना कीमती समय अस्पताल में गुजारे। अपनी कमाई का हिस्सा बिना बोले उसके जीवनस्तर के सुधारने पर व्यय करे।
आज प्रेम की परिभाषा ही बदल गयी है। प्रेम का बाजारीकरण कर दिया गया है। फिल्में इसी स्वरूप को भुनाकर कमा रही हैं। अब तो फटाफट प्रेम के बाद लिव इन रिलेशनशिप जैसी बातें भी कहीं जाने लगी हैं। अधिकार, भावना और रिश्तों की कपटपूणॆ व्याख्या समाज को दोराहे पर खड़ी करने की कोशिश होती दिखती है।
दिल के साथ दिमाग को भी समझाइये। प्रेम की सही व्याख्या करिये। नहीं तो भटके लोगों की भीड़ बढ़ती जायेगी और हम-आप एकाकी जीवन जी रहे होंगे। क्योंकि ये समय भी गुजर जायेगा। और आप सोचते रह जायेंगे...
Tuesday, February 3, 2009
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2 comments:
बहुत सही बात कही हम तो आपके मुरीद हो गये
चाँद, बादल और शाम
Sahi kaha aapne bhatke logon ki bhid badhti ja rahi hai. Prem karne walon mein bhi aur iska virodh karne walon mein bhi.
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