Friday, February 13, 2009

हम ब्लागर संस्कृति के ठेकेदार क्यों बन बैठे हैं?

पिंक चड्ढी विवाद के रास्ते अब बहस भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा का बनता जा रहा है। दस में से सात ब्लाग तो शायद इसी विषय पर पोस्ट डाल रहे हैं। सारे ब्लागों को पढ़ने के बाद एक बात साफ है कि सारे लोग भारतीय संस्कृति के गिरते स्तर को लेकर चिंतित हैं।
चिंता इस बात की भी है मुतालिक साहब जैसे स्वयंभू सांस्कृतिक ठेकेदारों के गुंडे पब में जाकर लड़कियों के साथ बदतमीजी करते हैं। लेकिन इन सारे सवालों से इतर बहस का केंद्र बिंदु व्यवस्था की कमजोरी पर आ टिकता है। ऐसी व्यवस्था किस काम की, जहां कोई भी राह चलते व्यक्ति की बिना बात कॉलर पकड़ कर पिटाई करने लगे।
भारतीय महानगरों के विकास ने कास्मोपॉलिटन कल्चर को प्रश्रय दिया है। अच्छी बात है। विकास भी हो रहा है। लेकिन स्वकेंद्रित होते जा रहे शहरों में ही ऐसी घटनाएं ज्यादा क्यों घट रही हैं?क्यों मुंबई जैसे शहरों में बिहारियों के ऊपर हमले होते हैं? क्यों ट्रेनों में हम किसी कमजोर पर अत्याचार होते देखते रह जाते हैं? क्यों हमारी हिम्मत आत्मदाह करते व्यक्ति को रोकने के समय जवाब दे जाती है? क्यों किसी कमजोर वृद्ध की मदद को हाथ नहीं उठते हैं?
सवाल इतने सारे हैं कि सांस्कृतिक ठेकेदारों को चुल्लू भर पानी में डूब जाना होगा। हम भी की-बोडॆ के पीछे टिपिया कर अपना आक्रोश झाड़ ले रहे हैं। लेकिन सवाल वही है कि तथाकथित चंद गुंडा तत्वों को हमला करने की हिम्मत कैसे मिल जाती है।
साथ ही ज्यादातर ऐसी घटनाएं दिल्ली, मुंबई या बंगलौर जैसे शहरों में क्यों हो रही हैं? सवाल का सीधा जवाब है-हमारा आपका स्वकेंद्रित होता जाना। हम संवादहीनता की उस पराकाष्ठा पर पहुंच गये हैं, जहां एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी की मानसिकता का तनिक भी भान नहीं है। जहां नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को मूखॆ समझती है। और पुरानी पीढ़ी को हिम्मत नहीं है कि नयी पीढ़ी को संस्कृति का पाठ पढ़ाये। क्योंकि जो वक्त उनके पास था, उन्होंने कमाने में गुजार दिया।
अब बच गये हम ब्लागर, तो हम क्यों सांस्कृतिक ठेकेदार बन बैठे हैं? क्या हममें इतनी परिपक्वता है कि हम बहस को सही दिशा दे सकें। ज्यादातर समय तो बहस सीधे व्यक्तितर स्तर के विरोध पर आ टिकती है। जब बहस व्यक्तिगत स्तर पर ही करनी है, तो फिर ये तमाशा बंद होना चाहिए। तमाशे से संस्कार और विचार नहीं गढ़े जाते हैं। उसके लिए एक ठोस चिंतन की जरूरत होती है। जो टीआरपी और हिटिंग जैसे विषयों से अलग होकर सोचने से ही आ पायेगी।

11 comments:

रंजू भाटिया said...

बिल्कुल सही लिखा है आपने ..मैं आपसे पूर्ण रूप से सहमत हूँ ..कुछ ठोस कार्य कर सकते हो तो जरुर करो

रंजन (Ranjan) said...

या संस्कृति के ठेकेदार ब्लोगर बन बैठे है?

अजित वडनेरकर said...

बहुत सही कहा मित्र...सहमत हूं मैं भी...
कई और भी हैं जो परेशान हैं इस प्रवृत्ति से...पर करें क्या...सोचने समझनेवाले लोग पान की दुकानों की बजाय अपने इस स्पेस पर विचार प्रकट न करें तो कहां जाएं ?
संस्कृति के ठेकेदार तो इन्हें नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये बेचारे तो सिर्फ बहसिया रहे हैं, सड़क पर तो नहीं आए...जैसे अतिवादी आते हैं...बिना समस्या की जड़ में गए।

कुश said...

सही बात है.. ब्लॉगर क्यो सोच रहे है संस्कृति के बारे में... उनका काम तो कविताए लिखना है.. चुटकुले सुनाना है.. पहेलिया पूछना है.. तब भी जब पास में बम फट जाए.. सामूहिक बलात्कार हो जाए.. लोगो को अकारण पीटा जाए... हमे क्या? हम तो बस कविताए लिखते रहेंगे.. इसके अलावा कर भी क्या सकते है?

आशीष कुमार 'अंशु' said...

प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि 'जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.'
तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता.

नटखट बच्चा said...

मुंबई में बिहारियों पर हमले की भी क्यों चिंता करे अंकल ?(वैसे तब भी पोस्ट लिखी गई थी आप कहाँ थे ?)किसी दूसरे की समस्या पर क्यों नजर डाले .पहेलिया सुलझाए ,चुटकुले सुनाये ,कविता पर वाह वाह करे ,या अमिताभ का ब्लोग पढ़े जो की अंग्रेजी में है .हिन्दी ब्लोगिंग यही तो है गप शप ओर क्या ?.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

आपके विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूं. पता नहीं हम हिन्दुस्तानि अभी तक मानसिक एवं बौद्धिक रूप से इतने परिपक्व क्यूं नहीं हो पाए है.
आज जब समाज में चारों ओर बेरोजगारी,भ्रष्टाचार,आंतकवाद,भुखमरी गरीबी जैसे दानव मुंह बाये बैठे है.तब भी हम लोग अभी तक अपनी मूल प्राथमिकताएं ही तय नहीं कर पाए हैं.
पता नहीं हम लोग किस मिट्टी के बने हुए हैं?

सुजाता said...

ऐसी व्यवस्था किस काम की, जहां कोई भी राह चलते व्यक्ति की बिना बात कॉलर पकड़ कर पिटाई करने लगे।
_________

सही कहा !

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत सही।

Kavita Vachaknavee said...

"राम के नाम पर यह कैसा काम ? लड़के पिएँ तो कुछ नहीं और लड़कियाँ पिएँ तो हराम ? पब से सिर्फ़ लड़कियों को पकड़ना, घसीटना और मारना - इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हिंसा करने वाले को शराब की चिंता नहीं है बल्कि लड़कियों की चिंता है। वे शराब-विरोधी नहीं हैं, स्त्री-विरोधी हैं। यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है, तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ? यदि पुरुष जाए तो क्या यह सब ठीक हो जाता है? इस पुरुषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है। शराब पीकर पुरुष जितने अपराध करते हैं, उस से ज्यादा अपराध वे पौरुष की अकड़ में करते हैं। इस देश में पत्नियों के विरूद्ध पतियों के अत्याचार की कथाएँ अनंत हैं। कई मर्द अपनी बहनों और बेटियों की हत्या इसलिए कर देते हैं कि उन्होंने गैर-जाति या गैर- मजहब के आदमी से शादी कर ली थी। जीती हुई फौजें हारे हुए लोगों की स्त्रियों से बलात्कार क्यों करती हैं ? इसलिए कि उन पर उनके पौरुष का नशा छाया रहता है। बैगलूर के तथाकथित राम-सैनिक भी इसी नशे का शिकार हैं। उनका नशा उतारना बेहद जरूरी है। स्त्री-पुरुष समता का हर समर्थक उनकी गुंडागर्दी की भर्त्सना करेगा।"

http://streevimarsh.blogspot.com/2009/02/blog-post_13.html

Sanjay Grover said...

यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है, तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ? यदि पुरुष जाए तो क्या यह सब ठीक हो जाता है? इस पुरुषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है। शराब पीकर पुरुष जितने अपराध करते हैं, उस से ज्यादा अपराध वे पौरुष की अकड़ में करते हैं।
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