Saturday, February 14, 2009
आत्मदाह, जिंदगी और व्यवस्था
खबर छोटी थी, लेकिन मोटी हेडलाइंस के साथ। झारखंड के किसी लड़के द्वारा दिल्ली में आत्मदाह करने को लेकर थी। आज उस खबर के साथ कुछ ऐसी यादें लौट कर आ गयीं, जिसने एक पूरी पीढ़ी को बदल कर रख दिया था। इंटर में था, तो मंडल कमीशन को लेकर उठे बवाल से मन हिला हुआ था। उसी दौर में दिल्ली विवि में एक छात्र द्वारा आत्मदाह की घटना के बाद कई केसेस हुए थे। मीडिया और आम लोगों में मामले ने काफी तूल पकड़ा था। हाल में झारखंड जैसे राज्य में भी एक-दो आत्मदाह घटनाएं हो चुकी हैं। शायद आत्मदाह व्यवस्था को हताश व्यक्ति द्वारा चुनौती दिये जाने का अंतिम हथियार है। ये घटना या ऐसी कारॆवाई उन सारे संवेदनशील मनुष्यों को सकते में डालने के लिए काफी है, जो समाज में सबके फायदे की सोचते हैं। इस मुद्दे पर बहसें नहीं होतीं या कहीं ये लेख नहीं लिखे जाते (शायद) कि आत्मदाह जैसा कठोर कदम कोई व्यक्ति कैसे उठा सकता है? ये ट्रेंड हाल के दिनों में ही क्यों बढ़ा है? जिंदगी से हार गये लोगों के लिए आत्मदाह अंतिम हथियार हो सकता है। लेकिन जिंदगी को दांव पर लगाकर वे तो खुद जिंदगी से हार जाते हैं। बॉडॆर फिल्म का एक डायलॉग आज तक मन में गूंजता है -मर कर कोई जंग नहीं जीती जाती। शायद हारे हुए मन को ये बात समझानी होगी कि जिंदगी में कई मोड़ हैं। बस थोड़ा अंदाज बदलना होगा। घुन लग चुकी व्यवस्था में मंत्री से लेकर आम आदमी तक चक्की के आटे की तरह पिसाता रहता है। किसी को तनिक भी दूसरे के प्रति सोचने की फुसॆत नहीं है। वैसे में जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तो एकबारगी दिमाग सुन्न पड़ जाता है और संवेदनाएं उमड़ पड़ती हैं। लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। उसके बाद फिर जिंदगी सामान्य रूप से चलने लगती है। समाजशास्त्रियों और नीति निधाॆरकों को इस बढ़ते नेगेटिव ट्रेंड़ को रोकने की ओर जरूर ध्यान देना होगा। हम तो बस अभी यही कह सकते हैं।
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2 comments:
बन्धुवर, आम की नियति ही है अचार पड़ना. मैंने शायद रचना जी के लेख में आम के बारे में पढ़ा था किन्तु फिर दोहराता हूं कि आम का तो शोषण ही होना है, चाहे फिर वह अगड़ा हो या पिछड़ा, सवर्ण हो या दलित.
शायद हमें विरोध के बेहतर तरीके ढूँढने होंगे और व्यक्ति को यह विश्वास भी दिलाना होगा कि लोग उनकी बात सुनेंगे। परन्तु आत्मदाह बहुत ही दुखद तरीका है।
घुघूती बासूती
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