Saturday, March 21, 2009

आखिर मंदी है क्या? (एक छोटी सी कहानी आप सबके लिए)

एक गरीब आदमी था। कम पढ़ा-लिखा, लेकिन मेहनती। दिन-रात कमाने में लगा रहता था। खुश था अपनी अपनी छोटी सी दुनिया में। खुदरा रोजमर्रा की चीजों को बेचता और कमाता खाता था। अपनी दुनिया में मस्त रहनेवाले उस आदमी की आमदनी बेहतर व्यवहार और परिश्रम के कारण बढ़ने लगी। उसे स्थायी दुकान की आवश्यकता महसूस हुई। सड़क के छोटे से कोने में दुकान बनायी। दुकान की चमक-दमक बढ़ाने के लिए बल्ब और रंगीन रौशनियां लगायीं। इससे लोग आकर्षित होकर और ज्यादा आने लगे। व्यवसाय की प्रगति चरम पर थी। जिंदगी चल निकली।

व्यवसाय बढ़ने के साथ उसे लोगों की आवश्यकता महसूस हुई। इस क्रम में उसके पास कर्मचारियों की फौज लग गयी। यानी एक उद्यमी का दर्जा वह गरीब आदमी हासिल कर चुका था। जीवन के क्रम में उस आदमी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। समय बीत चला। अब २१वीं सदी में जवान बेटा अमेरिका एमबीए करने गया। एमबीए पढ़कर लौटने के बाद वह पिता के व्यवसाय को संभालने लगा। उसने पाया कि उसके पिता सुबह से लेकर शाम तक बस अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे। उन्हें बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं था। धीरे-धीरे उसने पाया कि सब लोग रोजमर्रा के कामों में व्यस्त रहकर बाहर की खबरों से कट से गये थे। वह नेट सर्फिंग करता और टीवी देखता। वह मैनेजर था, तो थोड़ी फुर्सत निकाल देश-दुनिया की प्रगति की जानकारी लेता रहता था। मंदी की खबर सुनकर वह चौंक पड़ा। पाया मंदी का दौर जारी है। लेकिन इधर उसके पिता को इस बारे में कोई खबर नहीं था। उसने सोचा, पिताजी को इस मंदी के बारे में बताया जाये।
आखिरकार हिम्मत करके आगे की जिंदगी को सुरक्षित रखने के लिए उसने पिता को मंदी के बारे में समझाना चाहा। उसने पिता को समझाया कि मंदी का दौर पूरी दुनिया में जारी है। हमारी दुनिया भी प्रभावित हो सकती है। अमेरिका तो पहले ही प्रभावित है। इसके लिए हमें बचत की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। पिता ने बचत करने के लिए मैनेजमेंट पढ़े बेटे से उपाय जानना चाहा।
बेटे ने बताया -
इन रंगीन बल्बों की रौशनियों की जरूरत नहीं, इन्हें हटाइये। हमारी दुकान का बड़ा नाम है, लोग ऐसे ही आयेंगे।
नियमित कर्मचारियों की फौज की जरूरत नहीं है, उन्हें हटाइये। आउटसोर्सिंग कर और ठेके पर काम करा कर व्यवसाय को आगे चलायेंगे। हेडेक कम होगा। साथ ही आफिस में आनेवाले चाय-पानी पर भी रोक लगा दी।
अब लोग आते, तो बस पानी पीकर चले जाते।

धीरे-धीरे सारी चीजें स्टेप बाइ स्टेप आजमायी गयीं।
रंगीन बल्ब और ट्यूब हटा दिये गये
कर्मचारियों की फौज कम कर दी गयी।
कामों को आउटसोर्सिंग कर और ठेके पर कराये जाने लगा
कर्मचारियों और अतिथियों को मिलनेवाले चाय-पानी पर रोक लगा दी गयी

अब ग्राहकों और आने-जानेवालों को दुकान में पहले जैसी रौनक नहीं दिख रही थी। लोगों में चर्चाएं शुरू हो गयीं। वे कहने लगे कि इतने बड़े उद्योगपति को क्या हो गया। ऐसी क्या बात हो गयी कि चमक खो गयी है। लगने लगा कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। सेठजी पर मुसीबत आनेवाली है। जाहिर है कि दुनियादारी के बादशाह लोगों ने सेठजी से संपर्क कम करना शुरू कर दिया। बाहर और लोकल व्यवसायी पैसे नहीं मिलने के भय से सेठ जी के साथ पार्टनरशिप कम करने लगे।
चंद महीनों में व्यवसाय की आमदनी में कमी आ गयी। अब बातें पहली जैसी नहीं रहने लगी। लेकिन सेठ का बेटा इन सब नेगेटिव चीजों के बीच बच गये व्यवसाय को बचाने में लगा था।
एक दिन पिता ने पूरा व्यवसाय बेटे को सौंपते हुए कहा-बेटा तुने सही कहा था, मंदी आ गयी है। देख ये क्या हो गया? हम पहले जैसे नहीं रहे। मैं नासमझ इतना नहीं समझ पाया। ये व्यवसाय अब तुही संभाल।
बेटे ने कहा-पापा, यही मंदी तो आपको मैं आपको समझाना चाह रहा था, लेकिन आप समझे नहीं। अब जब समझे तो इतनी देर कर दी। पता नहीं, ये ब्लाग पढ़नेवालों को कब समझ में आयेगा।

5 comments:

Sajid Khan said...

nagative main positve...

संगीता पुरी said...

बहुत गंभीर बातें कहानी के माध्‍यम से समझायी आपने ... किसी बात को अधिक गंभीरता से पकडना भी कभी कभी हानिकारक हो जाता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत बहुत सुंदर तरीके से समझाया। अगर पहले की तरह ड़टे रहते तो शायद मंदी आती ही नहीं। मंदी का असर तो होता है और हम घबरा कर उसे कई गुना बढ़ा लेते हैं।

Gyan Dutt Pandey said...

जो कुछ होता है - पहले मन में होता है। मन्दी मन के द्वारा आती है। शेयर मार्केट धड़ाम होता है तो भय से ही - जो मन में होता है।

Anonymous said...

हम तो समझे-समझाए हैं जी।

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