जब बूढ़ों को पॉलिटिक्स में भिड़ा देखता हूं। पहली बात ये मन में आती है कि इनमें ऐसा कौन सा जज्बा है कि ये इतनी उम्र हो जाने के बाद भी पसीना बहा रहे हैं। उस जज्बे के बारे में सोचकर मन गदगद हो जाता है। बुजुर्गों का जिंदगी के लिए समर्पण अद्भुत लगता है। लेकिन फिर बाद में जब इन्हें बीमार हो जाने के बाद भी सत्ता के लिए लालायित पाता हूं, तो मन ये भी पूछता है कि इतनी जद्दोजहद आखिर किस चीज के लिए कुर्सी के लिए या और कुछ?
ये एक अहम प्रश्न है कि देश के महत्वपूर्ण पद हम इन बुजुर्गों के हाथों में देने के पहले कितना सोचते हैं? देश के लिए क्या जरूरी है, अनुभवों का लंबा पिटारा या चुनौतियों का सामना करने के लिए तेज दिमाग। जब शरीर स्वस्थ नहीं है, तो मन भी साथ नहीं देगा। ये जाहिर है। ऐसे में बुजुर्ग नेताओं द्वारा बीमार होने के बाद भी अंतिम समय तक कुर्सी के लिए जद्दोजहद करना एक सवाल छोड़ जाता है।
सवाल ये कि क्या राजनीति में उम्र के हिसाब से कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। जब नौकरियों में रिटायरमेंट की उम्र ६०-६२ वर्ष मानी जाती है, तो देश के ऊंचे पदों पर आसीन होनेवाले लोगों के लिए उम्र का बंधन क्यों नहीं हो? इससे एक फायदा कम से कम उस वर्ग को होगा, जो इन बुजुर्गों द्वारा लगातार नकारे जाने के कारण किनारे में रह जाया करते हैं। बुजुर्गों का बढ़ा हुआ कद और उनके तीखे तेवर उन्हें आगे बढ़ने से रोकते हैं।
बार-बार ये सवाल हर चुनाव के वक्त पूछे जाते हैं, लेकिन बतकही के शोर में कहीं दबकर रह जाते हैं। जब बड़ी कंपनियों को चलाने के लिए इतनी नुक्ताचीनी और प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। तब क्या महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठनेवाले लोगों के लिए कोई मापदंड नहीं होना चाहिए? हमारे विचार से ऐसा होना चाहिए और इसमें थोड़ा कठोर मापदंड होना चाहिए। राजनीति में भी रिटायरमेंट की समय सीमा लागू की जानी चाहिए। आनेवाले समय में ये बात उठेगी ही, भले ही थोड़ी देर से उठे।
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4 comments:
मुझे नहीं लगता कि इस तरह कि उम्र सीमा राजनीति के लिए उपयोगी है हाँ किसी पद को धारण करने के लिए उम्रसीमा लगाई जा सकती है
पर बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन ?
यह संभव नहीं है। नौजवान आगे आने लगें तो बूढ़े वैसे ही काम छोड़ भागेंगे। पर परंपरागत दलों में यह संभव नहीं है।
बीमार,लुज्लुज और पिलपिले नेताओं को अवश्य देशहित और जनहित का विचार करते हुए अपनी जिद्द का परित्याग कर देना चाहिए .राजनीति में बुजुर्गों और युवाओं दोनों की भागीदारी होनी चाहिए .देश के नेतृत्व के लिए अनुभवी और उर्जावान दोनों तरह के लोगों की जरूरत है .
देश को खाली युवाओं के भरोसे छोड़ना भी काफी खतरनाक है .देश यदि युवा नेतृत्व के हाथों में होता तो शायद वो २६/११ जैसी घटनाओं को होश के बदले जोश से हैंडल करता .वरुण और राहुल गाँधी जैसे युवा नेताओं के यदा-कदा आनेवाले अपरिपक्व बयान और अनुभवहीन जीवन को देखकर लगता है कि देश का नेतृत्व पूरी तरह से युवा हाथों में चले जाने से बड़ा ब्लंडर भी हो सकता है .
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