हम भारतीय किसी भी चीज की नकल तुरंत कर लेते हैं। बुश पर जूते क्या फेंके गये, जूतों की बहार आ गयी। जूता मारना बेइज्जत करने का सबसे आसान हथियार है। बेइज्जती का सबसे बदरंग शक्ल है ये। लेकिन मीडिया के धुरंधरों ने कलम की जगह जब इसे चुना, तो सच कहूं कि खुद को पत्रकार कहने से शर्म आती है।
यहां देखिये,भाई साहब ने जूता फेंका और बना दिये गये हीरो। कुछ देर के लिए अहं की संतुष्टि के नजरिये से ये सही लगता है, लेकिन सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देनेवाली एक बड़ी जमात के लिए ये खतरे की भी घंटी है। हम आपसे और आपकी नीतियों से असंतुष्ट क्या हुए, सीधे जूता का वार आप पर कर दिया।
ये कल्चर या कहें ये निकृष्ट आक्रामकता क्या बेहतर कही जायेगी? ऐसा न हो जाये कि किसी भी सभा या बैठक में पत्रकारों को जाने से पहले जूते जमा करना शुरू कर देना पड़े। आश्चर्य तो तब होता है, जब इसकी वाहवाही में लिक्खाड़ महोदय सब शब्दों का जाल बिछा देते हैं। बंधुओं को ये नहीं लगता कि ऐसा कर वे जिस परंपरा की शुरुआत कर रहे हैं, वह उनकी अगली पीढ़ी को प्रभावित करेगा।
इन सबसे अलग खुद मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया को जैसे चिंगारी की झलक लग गयी थी, उसने उस खास पत्रकार और घटना के कवरेज में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इस जूता फेंकने के काम को जितना हतोत्साहित करना हो, करिये, क्योंकि ये पूरी मीडिया जमात के हित में है। मीडिया को मीडियाकर्मी मीडिया बना ही रहने दें, इसमें उस कालिख पोतनेवाली कल्चर की नींव न डालें, जिसका ये खुद विरोध करता है। मीडिया को लोग लाख गाली दें, लेकिन अभी के दौर में मात्र मीडिया ही ऐसी जगह बच गयी है, जहां कुछ न कुछ रौशनी बाकी है।
इसको ग्लैमराइज करके मीडिया एक गलत कार्य को ग्लैमराइज कर रही है। ऐसी गलती विदेशों में भी मीडिया ने की और वही गलती हमारे देश की भी मीडिया कर रही है। कहते हैं कि भीड़ की कोई भाषा नहीं होती। मीडिया भी वर्तमान दौर में उसी भीड़ की तरह व्यवहार कर रहा है और करता है। वैसे में मीडिया कर्मियों के ऐसे काम, खास कर ये जूता फेंकनेवाली घटना, उसकी इमेज को और गिराती है।
इस मुद्दे पर थोड़ा देर से इसलिए लिखा, क्योंकि खुद मीडियाकर्मी होकर मीडिया की आलोचना करना थोड़ा खटक रहा था। लेकिन जज्बात को काबू रखना ब्लाग पर संभव नहीं लगा। इसलिए लिख डाला। अब आप मी़डियाकर्मी के इस हथकंडे को सही माने या गलत, हमारी कोशिश सही बात को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की है।
मैं क्रांति की बात नहीं करता, लेकिन अनुशासन की बात करता हूं। मैं थप्पड़ मारने की बात नहीं करता, लेकिन क्षमा की बात करता हूं। मैं गरियाने की बात नहीं करता, लेकिन संवाद की बात करता हूं। और ऐसा करता रहूंगा। क्योंकि सच्चे और संतुलित समाज के निर्माण की दिशा में मेरा ये छोटा प्रयास रंग लाये या न लाये, कंपन जरूर पैदा करेगा।
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10 comments:
आप के विचार बहुत अच्छॆ हैं...तो आप के अनुसार जरनैल को जूता नही फैकना चाहिए था।..( यह बात सही है कि जूते का कोई असर कांग्रेस पर नही हुआ...सुना है सज्जन कुमार के भाई को टिकट दे दिया गया है) पच्चीस सालों तक संवाद करने के बाद भी जब कोई नतीजा ना निकले तो अभी पच्चीस सालो तक और संवाद करते रहना चाहिए???
prabhat jee,
saadar abhivaadan. mujhe to lagtaa hai jootaa fenkne walon ne samasyaa kaa hal dhoondhne ke lihaaj se joota fenkaa bhee nahin tha, ye bhee theek hai ki jis tejee se ye pravaritti jor pakadtee jaa rahee hai wo chintajanak baat hai, lekin is baat se bhee inkaar nahin kiya jaa saktaa ki jantaa sach mein ab uktaa gayee hai.
paramjitji kisi bhi samsya ka hal jute phekna nahi hai. samvad to jaroori hai hi. sabse jaroori chiz is samvad ko sakaratmak banane ki hai. jab communication gap hota hai, tabhi aisi chize hoti hai. samsya ko suljhane ki baat honi chahie bigarne ki nahi. khas kar tab jab aap media person hai. media person ka daitva jyada badh jata hai.khas kar sarvjanik jivan me.
लेकिन सर यह बताइए कि नवीन जिंदल पर जिस बुजुर्ग ने जूता फेंका था उसे तो ग्लेमराइज नहीं किया गया। वह गुस्सा था भारत के बुजुर्ग का।
मैं यह नहीं कहता कि जूता फेंककर या चप्पल फेंककर कोई क्रांति हो सकती है लेकिन जब गुस्सा इतना हो कि उसे अंदर में नहीं रख पाएं तो क्या किया जाए..
लाख टके का सवाल।
girindraji krodh me urja ka hi istemal hota hai. gandhi ne krodh ka sahi istemal kar ajadi dilayi. is urja ko ham kis disha me le ja rahe hai, ye hamare upar hai. meri bahas media person dwara aisi harkat karne par jyada kendrit hai. media ki pratishtha ko bachana ham sab ka farz hai. khas kar ham patrakaro ka.
मेरे समझ से जूता फेंकना समस्याओं का समाधान नहीं है,
जो पहले से ही वेहाया हो उससे हया की उम्मीद क्या ,
इनकी आँखों में पानी ही नहीं होता फिर शर्म कैसे आयगी ?
कुछ लोगों का विचार है जूता फेकते समय जूते के सम्मान को ठेस नहीं पहुचना चाहिए .आज कल लोगों ने जूता फेकने को फैशन ही बना डाला है.इससे जूते का मूल्य लोग गिरा रहे हैं .
कुछ लोग मानते हैं कि गुलाबी चड्ढी की तरह जूता गांधीगिरी का एक वैरीयंट हैं .पर इसे गांधीगिरी के श्रेणी में बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि अन्याय पर हमला करने के लिए अहिंसक जूता प्रक्षेपास्त्र सत्य की ताकत द्वारा प्रक्षेपित अंतिम विकल्प हो.कुछ लोग ये भी कहते हैं कि जूते से किसी को शारीरिक चोट न लगे ,निशाना चुके ताकि निशाना लगे.साथ ही नो फर्स्ट ओफ्फेंस के सिद्धांत का पालन हो .
कहा तो ये भी जाता है कि किसी भी चीज़ की अति ठीक नहीं ,गांधीवाद की अति भी ठीक नहीं . प्रभात गोपाल जी ने ठीक ही कहा है यदि १८५७ में मंगल पाण्डेय या १९३१ में भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव ने अपने क्रोध का सही इस्तेमाल कर आज़ादी का बीज बोया और गाँधी जी ने आज़ादी का फसल काटा .
पॉवर वालों के पास इतनी ताकत तो आ ही गयी है कि वो कानून के लम्बे हाथ को जब चाहें मरोड़ दें और पैसे वालों के पास इतनी दौलत कि अपनी पूरी जिंदगी जमानत पर खरीद लें .प्रभात गोपाल जी ने ठीक ही कहा कि बहरों के आगे संवाद को सकारात्मक बनाने की और भैंस के आगे बीन बजाने की बहुत जरूरत है.भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं.हमे धीरज नहीं खोना चाहिए जीते जी न मिले पर न्याय आरोपी और फरियादी के मौत के बाद ही सही ,जरूर मिलता है .
तो क्या समस्या का सही हल
जूते खाना है ?
satya vachan maharaj
यह फैशन है - जितनी जल्दी आया वैसे ही जायेगा।
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