एलेक्शन खत्म होने को है। मीडिया के चर्चे सिर्फ बतकही तक सीमित हैं। इस बार का चुनाव मीडिया की एकतरफा उदासीनता के लिए भी याद किया जायेगा। इस बार के चुनाव में खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया कुछ खास दमदार नहीं कर पाया। चुनाव की रिपोर्टिंग के मामले में दूरदर्शन के समय से एक खास जगह इलेक्ट्रानिक मीडिया में एनालिसिस को मिली। लेकिन इस बार का इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने एनालिटिकल पावर का ज्यादा उपयोग नहीं कर पाया।
ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर सोचनेवाली बात है। प्रिंट मीडिया में तो बहसों को निचोड़ कर रख दिया गया। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया सिर्फ फिल्मी तड़का, तड़क-भड़क और सूचना दाता की भूमिका में रह गया। इसमें वो पैनी धार नहीं दिखाई पड़ी, जो दिखनी चाहिए। एनालिसिस के नाम पर चार दलों के नेताओं को भिड़ाकर उनके रटे-रटाये जुमले सुनाना ही इलेक्ट्रानिक मीडिया की रूटीन में शुमार हो गया है। हर जागरूक नागरिक दलों की बतकही से वाकिफ हो चुका है और अब नेताओं के रटे-रटाये जुमलों को सुनना नहीं चाहता। क्या इलेक्ट्रानिक मीडिया में वह पैनी धार नहीं रही या मंदी की दोधारी तलवार ने उससे उसकी ताकत छीन ली है, पता नहीं।
आज भी एनालिसिस और गहराई तक जानकारी के लिए लोग प्रिंट मीडिया को ज्यादा भरोसेमंद मानते हैं। बतौर प्रिंट मीडिया का पत्रकार होने के कारण हम इस बात को अपने लिये बेहतर मानते हैं। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया के कम होते जा रहे एनालिटिकल पावर के साथ इसमें जुड़ते जा रहे ग्लैमर के तड़के ने मजा को खराब कर दिया है।
सबसे देखनेवाली चीज ये है कि दूसरों को बदलाव का पाठ पढ़ानेवाली मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का ढर्रा आज तक ज्यों का त्यों है। जिस दिन इलेक्ट्रानिक मीडिया दिल्ली, मुंबई और महानगरों के अपने ओबसेशन बेस्ड रिपोर्टिंग स्टैंडर्ड को बदल देगा, उस दिन क्रांति आ जायेगी। देश के भीतर के हिस्सों में जाकर रिपोर्टिंग करने की परंपरा कम होती नजर आती है।
कस्बों और गांवों में जाकर वहां की बदहाली की जानकारी इलेक्ट्रानिक मीडिया के संवाददाता कम देते दिखाई पड़ते हैं। २४ घंटे में ही सारा कुछ दिखाना रहता है। लेकिन इस कला को आत्मसात कर जिस दिन इलेक्ट्रानिक मीडिया देश के अधिकांश हिस्से की खबरों से तालमेल बैठा लेगा, उस दिन क्रांति आ जायेगी। फर्क आप सीधे क्षेत्रीय इलेक्ट्रानिक चैनल और नेशनल इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखकर महसूस कर सकते हैं। क्षेत्रीय समाचारों के बूते आज क्षेत्रीय चैनल सफलता का डंका पीट रहे हैं। अफसोस इस बात का है कि नेशनल कहे जानेवाले चैनल नेशनल सिर्फ दिल्ली बेस रहने के कारण कहला रहे हैं। नेशनल के मायने को ये चैनल समझें, ये जरूरी है। नहीं तो इनका रुतबा कम होता जायेगा और लोग रिमोट पर सिर्फ एक चैनल से दूसरे चैनल तक न्यूज के लिए भटकते मिल जायेंगे।
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2 comments:
नेशनल कहे जानेवाले चैनल नेशनल सिर्फ दिल्ली बेस रहने के कारण कहला रहे हैं-बिल्कुल सही कह रहे हैं.
हम तो अछूते रह गये प्रिण्ट और टीवी के माहौल से। कोई प्री-पोस्ट पोल होता तो सनसनी होती।
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