Friday, May 1, 2009

सिर्फ बिल्डिंग बनाने और धरती का सीना भेदने से काम नहीं चलनेवाला, कुछ करिये...

हर साल बढ़ती जा रही असहनीय गरमी हमारे माथे पर चिंता की लकीरें खींच दे रही हैं। खास कर मेरे माथे पर तो है ही। रांची और हजारीबाग शहरों की बातें ही कर लें। यहां गरमी में तापमान ४१ डिग्री को पार कर जा रहा है। आग बरसाता सूरज कुछ मानवीय भूलों की ओर याद दिलाता है। जब लोगों को विकास की दौड़ में शामिल होने की बातें करते देखता हूं , तो एक तीर दिल को भेदते गुजर जाता है। हम कैसा विकास चाहते हैं।

रांची आज से २० साल पहले तक हरियाली के लिए जाना जाता था। हम ज्यादा दूर नहीं जाते। हमारा इलाका, यहां का आसपास का मुहल्ला काफी हरियाली से घिरा हुआ था। छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरी रांची की खुशनुमा शाम एक अजब सा आनंद दे जाती थी। पुराने बाशिंदों को आज भी यहां की पहाड़ियों पर शाम बिताना याद है। पहाड़ी की ऊंचाई से आप जगमगाती रांची को हरी चादर में ढंकी हुई महसूस कर सकते थे। यहां की सड़कों के किनारे पेड़ों की झुरमुटों के छाये में साइकिल चलाते हुए जाना एक अजीब सुकून दे जाता था। गरमी का नामोनिशान नहीं था। थोड़ी गरमी के बाद बरसात होना भी आम बात थी, लेकिन आज सबकुछ बदल गया है।

बरसते तपिश के साथ पेड़ों की छाया मिलनी भी कठिन हो गयी है। सड़क चौड़ीकरण के नाम पर पेड़ों को काट डाला गया। मुहल्ले बसते गये, अट्टालिकाएं बढ़ती गयीं और पेड़ उजड़ते चले गये। रांची में पिछले दस सालों में बिल्डिंगों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। जाहिर है आबादी बढ़ी है।शहर पर बोझ भी बढ़ा है। भूमिगत जलस्तर का भयंकर दोहन हो रहा है। जो जलस्रोत हैं, उनकी क्षमता बढ़ाने की चिंता कहीं नहीं दिखती। हाय रे, मानव समाज, जिसके दम पर जिंदगी जीते हो, उसकी ही कद्र नहीं हो रही। गंदे होते पोखर, डैम और नहरों के लिए कोई गंभीरता नहीं दिखती। दरभंगा जैसे इलाके में देखा और पाया कि तालाबों को भरकर घर बनाने का सिलसिला चालू है। शहर की परंपरागत पहचान तालाब खत्म होते जा रहे। पानी को संरक्षित करने की प्रणालियों पर जोर नहीं। बस बिल्डिंग ठोंका और धरती को भेदकर पानी निकालने का सिलसिला हो जाता है चालू।

सोचनेवाली बात ये है कि बढ़ता तापमान, उमस और बिगड़ता पर्यावरण के इस सिलसिले को लेकर कब गंभीरता आयेगी। जो शहर हरियाली के लिए ख्यात हैं, कम से कम वहां हरियाली के संरक्षण के लिए मुहिम चले, ये जरूरी है। जरूरी ये भी है कि एक पेड़ के साथ शहर की पहाड़ियों और जलस्रोतों की भी कद्र हो।

अगर ऐसा नहीं हुआ.. तो..

8 comments:

Manish Kumar said...

बिल्कुल सही लिखा आपने। अपने शहर के सीमित संसाधनों का सिर्फ दोहन ही कर रहे हैं हम सब और प्रशासक सुध लेने को तैयार नहीं।

संगीता पुरी said...

प्रकृति को छेडकर मनुष्‍य जो गलती कर रहा है .. उसकी सजा उसे भुगतनी ही होगी .. खैर उपाय तो किया ही जाएगा .. पर वह तब होगा जब उपाय के लिए कुछ भी बाकी न रह जाएगा।

दिनेशराय द्विवेदी said...

पर्यावरण तो गोल हो चुका सिर्फ दोहन में लगे हैं हम।

Udan Tashtari said...

सहमत हूँ..इस दिशा में सजगता की जरुरत है.

सुशील छौक्कर said...

अभी आप एक पेड लगाने की बात कीजिए फिर देखिए कितने लोग पेड लगाते है और आप अभी नैना देने की बात करिए तो देखिए फिर कितने लोग लेने के लिए आ जाते है। कभी कभी मेरे दिमाग में सवाल आता है कि हम माँ बाप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते है उनके लिए जान देने को तैयार हो जाते है। पर क्या हमें अपने बच्चों ऐसा पर्यावरण देना चाहिए?

sarita argarey said...

राँची ही क्यों , कमोबेश देश के ज़्यादातर शहरों का यही दर्द है । हम लोगों ने विकास की राह तो पकड़ ली लेकिन विनाश रोकने का विकल्प नहीं सोचा । पूँजीवाद में लेते जाने की प्रवृत्ति ने देने की परंपरा को पूरी तरह खत्म कर दिया है , जबकि भारतीय संस्कृति प्रकृति के नज़दीक जाने की कला सिखाती है । उससे लेने के साथ ही कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लिया गया अंश लौटाने की बात भी कहती है । जो भी समाज अपनी स्भ्यता और संस्कृति से कट जाता है उसकासफ़र कितना लम्बा रह पायेगा ,कह पाना मुश्किल है । परंपराएँ हमारी जड़ें हैं और जड़ों से कट कर कोई भी वृक्ष लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता ।

prabhat gopal said...
This comment has been removed by the author.
prabhat gopal said...

thanks for comments

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