माओवादियों ने शायद फिर से झारखंड सहित अन्य राज्यों में बंद का ऐलान किया है। अगर हम पाकिस्तान की स्वात घाटी में तालिबानी कहर पर घड़ियाली आंसू बहाते हुए ब्लाग पर लेखों की बाढ़ ला देते हैं, लेकिन माओवादियों के बढ़ते खतरे को लेकर बेपरवाह हैं। जो देश की सीमा के भीतर पर अराजकता का नंगा नाच कर रहे हैं। अब तक माओवादी हिंसा ने सैकड़ों जवानों और लोगों की जानें ली है।
रोज जवान और अधिकारी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जान हथेली पर लेकर घूमते रहते हैं। सरकार के आदेशों के रहमोकरम पर ये जवान नौकरी की खातिर नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों से लोहा लेते रहते हैं। ये माओवादी, जिनका न कोई सिद्धांत है और न उसूल, समाज और देश के लिए नासूर बनते जा रहे हैं। इन सबमें सबसे खतरनाक चीज हमारी बेपरवाह होती जा रही व्यवस्था की है। अगर बंगाल के लालगढ़ में माओवादियों ने पूरी राजनीतिक व्यवस्था को खुली चुनौती दे डाली है, तो ये बंगाल की राजनीति के सबसे गिरे स्तर का परिचय है। जब पिछले सत्र में यूपीए सरकार लेफ्ट के रहमोकरम पर थी, तो रोज लेफ्ट ने समर्थन वापसी की धमकी देकर नाकों में दमकर दिया। आज खुद लेफ्ट अपने ही क्षेत्र में अकेला पड़ता जा रहा है।
ये त्रासदी सिर्फ और सिर्फ लेफ्ट की ब्लेमिंग पॉलिटिक्स के कारण ही हुआ है। कांग्रेस भी लालगढ़ की घटना के लिए लेफ्ट की बंगाल सरकार को दोषी ठहरा रही है। लालगढ़ भारत में ही है। साथ ही ये माओवादी सिर्फ वहीं अराजकता उत्पन्न नहीं कर रहे, बल्कि रेड कॉरिडोर बनाने की अपनी परिकल्पना को अमली जामा पहनाने की जुगत भिड़ा रहे हैं।
हमारे हिसाब से इस देश में तीन तरह की आबादी रह रही है। एक वह जो शहरों में रहती है, जिसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में कोई मरे या जिये कोई फर्क नहीं पड़ता। दूसरी वह जो समाज के सबसे अमीर और पावरफुल लोग हैं। जिन्हें आबादी के निचले हिस्से का इस्तेमाल करना बखूबी आता है। और तीसरी वह निचले स्तर की आबादी, जो रोज समस्याओं के जंगल से गुजरती हुई, जीवन जीती है। निचले हिस्से की आबादी में जो लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं, वे झारखंड, बिहार, उड़ीसा या कहें अब बंगाल जैसे राज्य में सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। माओवादियों ने व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर अपना प्रभाव कायम कर लिया। सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार, उदासीन सरकार और बेपरवाह अधिकारी इसमें और योगदान देते चले गये।
हमारे देश का दिल्ली में बैठा थिंक टैंक भी समग्र रूप में इन बातों को लेकर गंभीर नहीं होता। अंदरूनी चुनौतियों से निपटने के लिए सिर्फ नीतियां बनती हैं और आलाधिकारियों का दौरा होता है। अब जरूरत ये हैं कि पूरा पॉलिटिकल सिस्टम और थिंक टैंक एक टेबुल पर आकर इस माओवादी जैसे नासूर को उखाड़ फेंकने की सोचें। मीडिया भी इसके बारे में सिर्फ लिख सकता है और लाल रंग से रंगी हेडिंग से खतरे का आभास दिला सकता है। लेकिन अब सरकार, नेता और ऊपरी तबके के हिस्से को भी इस खतरे के आभास को तौलना होगा।
खुद हर दल माओवादी हिंसा या उनके कहर को अपने नजरिये से व्याख्या करता नजर आता है। जबकि उनकी अराजकता उत्पन्न करनेवाली कार्रवाई पूरी तौर पर गलत है। हर पुलिस मुठभेड़ पर सवाल खड़े होते हैं। हर दल खुद को गरीबों का मसीहा बताता है। लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं होता कि इस माओवाद जैसे बढ़ते नासूर का खात्मा कैसे होगा। किसी के पास कोई नीति या योजना नहीं होती। क्षेत्रवाद की आंधी में माओवादी अपने लिये आसान रास्ता निकालते हुए प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते चले जा रहे हैं। इसे शायद सब लोग समझ रहे हैं, लेकिन लाचार हैं। क्योंकि माओवादियों के खिलाफ संगठित विरोध के स्वर कुंद होते चले जाते हैं। जरूरत इस समस्या पर हल्ला बोलने की है।
झारखंड में पलामू जैसा इलाका माओवादियों के कारण पूरी तरह अराजकता में जी रहा है। अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कम से कम अब तो सरकार, नौकरशाह और निचले तबके के प्रतिनिधि जगें और व्यवस्था को तहस-नहस होने से बचायें। नहीं तो, सिर्फ कोसते रह जायेंगे और समय हाथ से निकल जायेगा।
Thursday, June 18, 2009
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3 comments:
बंगाल में माओ से मार्क्स भिड़ रहे हैं! :)
@ "बंगाल में माओ से मार्क्स भिड़ रहे हैं! :)"
हा हा , बढ़िया।
विचारधाराएं मनुष्य के लिए बनती हैं, मनुष्य उनके लिए नहीं। बौद्धिक रूप से अति उन्नत विचारधारा भी यदि मानव कल्य़ाण की राह से भटक जाय तो उसका परित्याग या शोधन आवश्यक हो जाता है।
भद्रलोक को 'संशोधन' कितना पसन्द है, यह तो नहीं पता लेकिन समस्याओं, सरकारी उपेक्षा और माओवादी अत्याचार के तिहरे व्यूह में फँसी जनता को बदलाव और सुधार चाहिए।
अब देखना है कि केन्द्र और राज्य सरकारें संकीर्ण राजनीति से उपर उठ जनहित में कितनी जल्दी संयुक्त कार्यवाही करती हैं ?
माओ से मार्क्स ??
बहुत अंतर होने के बावजूद हर विचारधारा अंत में अपनी शून्यता की ओर जाने लगती है !!
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