
अपनी बेटी के जन्म से पूर्व मुझे ऐसे दो-चार सवालों से रूबरू होना पड़ा था, जिसमें समाज के नकारात्मक पक्ष की झलक ज्यादा मिलती है। जैसे अगर बेटी हो जाए, तो क्या करोगे? मैं पूछता, क्यों अगर बेटा हो जाए, तो क्या होगा? बेटा-बेटी में फर्क करता हमारा समाज एक ऐसी दीवार बच्चे के जन्म के समय से खींच डालता है कि वह समाज के हर व्यक्ति के साथ छाए की तरह लगी रहती है। एक व्यक्ति नारी से मां, पत्नी, बहन और दोस्त के रूप में सामना करता है। उसमें संस्कार डालनेवाली और लालन-पालन करनेवाली भी नारी ही होती है।
सिर्फ दहेज और कुछ नकारात्मक धारणाओं के कारण ऐसी छवि बनती चली जाती है कि कई लोग बेटी को बोझ समझने लगते हैं। मैं कहता हूं कि बेटी या बेटे में क्या फर्क है। देखा जाए, तो महिला की सबसे बड़ी दुश्मन खुद महिला ही है।ऐसा देखा जाता है कि किसी भी मामले में घर की दूसरी महिला की भागीदारी ज्यादा होती है। ऐसे में ज्यादा समस्याओं का समाधान भी खुद महिला जाति के ही हाथ में रहता है। अगर नारी ठान ले, तो कौन उसके अधिकारों को छीन सकता है? सौभाग्य से अब हालात कुछ बदले हैं। हमारी पीढ़ी के लोग बेटियों को भी पढ़ाने में पीछे रहने की नहीं सोचते। बेटियों को पढ़ा कर उन्हें स्वावलंबी बनाने में गर्व महसूस करते हैं।
दूसरी बात क्या नारी जाति को सहानुभूति की जरूरत है। कुछ खास तबके शोर मचाकर, गुट बनाकर एक अलग दायरा बनाने की कोशिश करते हैं। पुरुषों के वर्चस्व को जहां तक चुनौती देने की बात है, तो वह तो टूट चुका है। लेकिन नारी को सशक्त बनाने के लिए क्या सहानुभूति और नारी के कमजोर होने का राग अलापना जरूरी है?
हौले से आईने में देख अपना चेहरा
आप डरा मत करिए
आईने पर पत्थर फेंका मत करिए
क्योंकि चेहरे के पीछे का छाया
एक सवाल पूछता है
सहानुभूति नाम के पत्थरों के पीछे
हमेशा कोई क्यों छिपता है?
लड़ो सामने से आत्मविश्वास के हथियार के साथ
कमजोर न करो अपनी हस्ती, हर मुकाबले के साथ.
2 comments:
क्या बेटा और क्या बेटी...संतान ही हैं..रचना सब कह रही है.
baat sachmuch vichaarniya hai
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