देर रात घर आया, तो एनडीटीवी पर विशेष प्रस्तुतिकरण में बताया जा रहा था कि धारावाहिक हम लोग के २५ साल पूरे हो गए। मनोहर श्याम जोशी लिखित इस धारावाहिक के बारे में विनोद दुआ बता रहे थे कि कैसे जोशी जी ने अपना पूरा ध्यान इस सीरियल के निर्माण के लिए लगा दिया था। मुझे अभी भी रात के नौ बजे समाचार के बाद आनेवाले हम लोग सीरियल के लिए इंतजार किए जानेवाले पल याद आते हैं।
उस समय हमारी उम्र बमुश्किल दस--११ साल की होगी, लेकिन आज भी वे पल पूरी तरह जेहन में कैद हैं। जेहन में तमस, बुनियाद, रजनी जैसे सीरियलों के किरदार भी उसी तरह से कैद हैं। सीरियल की जिंदगी कुछ आसपास दिखती मालूम होती थी। नुक्कड़ का खोपड़ी आजतक सपने में आता है। नुक्कड़ पर भटकती जिंदगी को कैमरे में समेट कर परोसना आसान नहीं था। उस दौर की बात कुछ और थी। आज की बात कुछ और है।
आज डेढ़ सौ से ज्यादा चैनल में बटनों को घुमाते चले जाइए, सिर्फ चकाचौंध से भरी जिंदगी का ही सामना होता है। आप कितने भी फास्ट क्यों न हो जाएं, आप को सुकून के दो पल जरूर चाहिए। व्यक्तिगत जिंदगी में फैली समस्याओं के निदान के लिए भी कुछ सुझाव चाहिए। वैसे में कोई किरदार वैसा नहीं दिखता, जो सपने में या बस शब्दों में कुछ ऐसा कह जाए कि एक रौशनी की किरण दिख जाए। हम लोग सीरियल के बाद अशोक कुमार का आना और छल पकैया, छल पकैया (शायद इन्हीं शब्दों के साथ वह बोलना शुरू करते थे) कहते हुए आगे के बारे में कुछ लिंक देकर बताना बरबस याद आता है।
यादें बहुत सी यादों का क्या है। हम लोग, बुनियाद जैसे सीरियलों ने टीवी क्रांति की नींव डाली। आज शायद फिल्म इंडस्ट्री से हमकदम होने की तैयारी करते सीरियल अपने वजूद को लेकर ज्यादा ही संघर्षशील हैं। उनमें मौलिकता की कमी, संवाद का कमजोर होना और रिश्तों का एकाकीपन एक खालीपन का एहसास करा जाता है। यहां थोड़ा उपदेशक होने की भूमिका में कहना पड़ता है कि थोड़ी व्यावसायिकता को कम करते हुए क्या सीरियलों की मौलिकता को नहीं बचाया जा सकता है। रामायण और महाभारत जैसे क्लासिक सीरियलों के सामने आज के बनाए जा रहे रामायण सीरियल फीके दिखते हैं। कुछ आडंबर और फिल्मी मसालों का छोंका सारे मजा का बंटाधार कर देता है।
बीते वक्त में लौटा नहीं जा सकता है, लेकिन वे बिताए पल आज भी कुछ यूं सामने आकर खड़े हो जाते हैं कि मन चंचल हो उठता है। काश, टाइम मशीन के सहारे उन पलों के फिर देख या महसूस कर पाते। खैर, दार्शनिक होने से अच्छा यथार्थ का सामना करना ज्याता बेहतर है। वैसे में हम लोग के नायकों को टीवी पर उम्रदराज होते देखकर लगता है कि वक्त का एक बड़ा फासला बीत चुका है। समाज और देश काफी आगे बढ़ चुका है।
अब जो टीवी का स्वरूप है, उसमें करोड़पति परिवार के सदस्यों का तिलिस्म समाज को तोड़ने के लिए काफी है। कमजोर बुनियाद के ऊपर टिके समाज का ढांचा इन सीरियलों के कारण उत्पन्न हो रहे महात्वाकांक्षाओं के ढेर के नीचे दबकर टूट जा रहा है। इसलिए मां का बेटी पर, बेटे का पिता पर से विश्वास उठ जा रहा है।
आज एक परिवार ज्यादा संकट झेल रहा है। हम लोग जैसे सीरियल में लोग अपना चेहरा देखते थे। उन्हें यकीन होता था कि उनकी जिंदगी भी बदलते किरदारों की माफिक बदलेगी। लेकिन अभी के सीरियलों में हम वैसा नहीं पाते। यहां तक कि खुद से आत्महीनता का बोध होता है कि क्यों मेरे पास इतने करोड़ रुपए या कार नहीं हैं। इन लग्जरी के लिए मैं क्यों उपयुक्त नहीं हूं? काफी सवाल हैं। लेख लंबा नहीं हो, इसलिए इसे यहीं खत्म करना उचित होगा।
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6 comments:
सचमुच अपने आप में एक शिक्षण-संस्थान रहे हैं बुनियाद, हम लोग, रामायण, महाभारत, नुक्कड़, मिट्टी के रंग इत्यादि ये सब धारावाहिक......कितना कुछ सिखाया है इन्होनें.....बुनियाद और हम लोग देखने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हो सका मुझे लेकिन इनकी चर्चाओं ने मुझे इनका दीवाना बना दिया है......बाकी सभी धारावाहिक देखने को मिले हैं और सदैव मेरे पसंदीदा रहेंगे.....
साभार
प्रशान्त कुमार (काव्यांश)
हमसफ़र यादों का.......
aapne sach hi kaha un ramayan maha bharat ko dekhne ke baad aur kisi ramayan mahabharat ko dekhne ka man nahin hua.kachchi dhoop ,ek kahani. katha sagar, bharat ek khoj,chankya aaj bhi unko dekhker man khil uthta hai.ab tv per kafi kuch banavati hi lagta hai
बिल्कुल सही कह रहे हैं. बहुत परिवर्तन आ गया है. सहज विश्वास नहीं होता कि इतना समय निकल गया.
जानदार हुआ करते थे पुराने सीरियल्स .. मुझे समझ में नहीं आता कि आजकल के सीरियलों को कौन देखता है और क्यूं ?
a की बी से एक शादी, एक तलाक, बी की सी से , सी की ए से और ए का तलाक, करोड़पति घर, राजनेता, देह-प्रदर्शन, ए का चार बार मरना, बस बन गया सीरियल
bilkul sahmat hoon aapke vicharon se...
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