हम लोग बचपन में कटिस-कटिस करते खेलते थे। यानी कि किसी से पलभर के लिए दोस्ती तोड़नी हो, तो उंगली लड़ाकर कटिस लगा लेते थे। हमारी आपस में बातचीत बंद हो जाती थी। फिर दूसरे दिन शायद रातभर में भूलकर फ्रेश मूड में दोस्ती कर लेते थे। खेलना-कूदना शुरू हो जाता था। बचपना को यादकर हम सब खुश हो जाते हैं। निजी जिंदगी में रिश्तों का बनन और बिगड़ना दोनों होता रहता है। वैसे राजनीतिक दांव-पेंच के बीच जब पॉलिटिशियन दोस्ती और दुश्मनी करते है, तो उसी कटिसवाले खेल की याद आती है।
कहते हैं राजनीति में कोई दोस्त और दुश्मन नहीं होता। इसी कारण कल तक दोस्ती निभानेवाले आज दुश्मन नजर आते हैं। लेफ्ट की कल तक कांग्रेस से पटती थी, आज नहीं पटती। लालू जी से अपने रूठ चले हैं। नीतीश जी से विकास के दावे और तस्वीर के बलबूते एक शक्तिशाली शख्सियत बनते जा रहे हैं। राजनीति की पूरी पटकथा में रिश्तों की बानगी को देखने के बाद लगता है कि आम जनता को हर पार्टी या तो बेवकूफ समझती है या कुछ और। जिस लालू प्रसाद को रेलवे की उपलब्धि को लेकर बधाइयों का तांता लगा रहा, उन्हें मैनेजमेंट गुरु तक की उपाधि दी जाती रही, उन्हीं पर अब ममता जी के कार्यकाल में कई बार उंगली उठायी जाती है।
कहते हैं कि राजनीति की चाल को समझने के लिए महीन बुद्धि चाहिए। अब उस महीन बुद्धि के लिए ज्यादा जोर लगाने की जरूरत नहीं है। कटिस-कटिस के खेल को याद कीजिए। जब जरूरत पड़ी, तो कर ली दोस्ती और जब जरूरत नहीं पड़ी, तो हो गए नाराज। ईश्वर तेरी महिमा अपरंपार है।....
Thursday, July 16, 2009
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1 comment:
कट्टिस कट्टिस ही तो है यह, नूरा कुश्ती.
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