Thursday, July 23, 2009

भाषा को लेकर इतना विवाद क्यों?

आज-कल बेटी को तोतलाते हुए बोलना सीखाता हूं, ए, बी, सी, डी, लेकिन क, ख, ग, घ नहीं। आप ये पूछेंगे जरूर, आप हिन्दी से क्यों नहीं शुरू कर रहे, तो जनाब हिन्दी तो गरीबों की भाषा मान ली गयी है।

हमारे किसी बच्चे ने यदि कहा कि वो आम है, तो हम सिखाते हैं कि वो मैंगो है, मैंगो बोलो। सुनता हूं या सुनाता था कि स्कूलों में अंगरेजी बोलने के लिए नियम बनाये जाते हैं, जो बच्चा अंगरेजी नहीं बोलता, उसे हिकारत की नजर से देखा जाता है।

हमें तो अपने वो पुराने दिन याद आ गये, जब हम अपने शर्ट-पैंट में इंक छींटते हुए और पूरे फिल्मी डायलाग बोलते हुए घर आ जाया करते थे। जिंदगी भर सरकारी स्कूल में पढ़ा। अंगरेजी सीखने के लिए ट्रांसलेशन बनाया। उन ट्रांसलेशन में न जाने कितने रेड पेड की स्याही चली होगी। हर बार सिर पकड़ कर अगली बार अंगरेजी को मजबूत करने के लिए और प्रयास करता।

आज हालत ये है कि हिन्दी के अखबार में हिन्दी के बल पर रोजी-रोटी कमा रहा हूं।

गरीब होती हिंदी को लेकर दुख होता है। अंगरेजी दां होते लोग हिन्दी में स्त्रीलिंग और पुलिंग की तो ऐसी-तैसी कर ही दे रहे हैं। मूल शब्दों को भी बिसार दे रहे हैं।

हम साहित्यकार नहीं हैं। हम जानकार भी नहीं हैं। लेकिन इतना जानते हैं कि हिन्दी सबको जाननी चाहिए। लेकिन जो खुद हिन्दीभाषी हैं और बेटे को पिता की जगह डैड बोलना सीखाते हैं, उनके सिर नीचा करनेवाली कवायद के बाद अब आप कैसे दूसरे भाषाई जानकार से हिन्दी में बात करने या सीखने की तमन्ना करते हैं।

हम इतना जानते हैं कि हमारे दादा-परदादा चार भाषा जरूर जानते थे या जानकार होते थे, बांग्ला, संस्कृत, हिन्दी और अपनी भाषा मैथिली। हम सिर्फ तीन भाषा संस्कृत को मिलाकर समझ और पढ़ सकते हैं। बांग्ला से कभी वास्ता नहीं पड़ा या प्रयास नहीं किया। इसके लिए खुद को दोषी मानता हूं।

सबसे बेसिक फंडे (माफ कीजिएगा आदत से मजबूर हूं) की बात करें, तो कोई भाषा गरीब या अमीर नहीं होता। नजरिया उसे अमीर या गरीब बना देती है। जब किसी विदेशी को अपनी भाषा या संस्कृति को जानने की चेष्टा करते हुए देखता हूं, तो अचरज नहीं होता। क्योंकि हमारी भाषा भी उतनी ही समृद्ध है, जितनी कोई और।

गौर करनेवाली बातें ये हैं कि सारे विवाद की जड़ में राजनीतिज्ञ होते हैं। वह चाहे चुनाव के ऐन वक्त अंगरेजी से मुक्ति दिलाने का अभियान हो या संसद में हिन्दी के सवालों का अंगरेजी में जवाब देने का मामला।

हम तो कहते हैं कि भाषा को क्यों अहंकार का केंद्र बनाते हैं? इसे पनपने और बढ़ने दीजिए। नदी के प्रवाह को रोकियेगा, तो पानी गंदा ही होगा।
भाषा को लेकर इतना विवाद क्यों? जिसको जैसा पसंद आये, बोलने दो।
एक आम आदमी को क्या अंतर पड़ता है, अगर कोई बोले-मिलते हैं एक ब्रेक के बाद, अंतराल के बाद नहीं।

4 comments:

Raravi said...

sach me yeh man ko dukhi karta hai ki hindi ko hum gareeb hote dekhte hain. magar sach to yeh hai ki yeh such nahi hai. Hindi me internet per likha ja raha hai.(sorry main yahan devnaagri me nahin likh paa rahah hoon.) hindi chamels khoob business kar rahe hain, magar jahan hum pichad rahe hain vah hai nai pidhi me is bhasha ke sahitya ke prati roochi aur samman paida karne mein.
hamen apne ghar se apne bachchon se ye ladai aur yeh mission shuru karna hoga.
aiye hum apne bachhon ko is se parichit karayen, hum isme likhen, baten karen.

Raravi said...

sach me yeh man ko dukhi karta hai ki hindi ko hum gareeb hote dekhte hain. magar sach to yeh hai ki yeh such nahi hai. Hindi me internet per likha ja raha hai.(sorry main yahan devnaagri me nahin likh paa rahah hoon.) hindi chamels khoob business kar rahe hain, magar jahan hum pichad rahe hain vah hai nai pidhi me is bhasha ke sahitya ke prati roochi aur samman paida karne mein.
hamen apne ghar se apne bachchon se ye ladai aur yeh mission shuru karna hoga.
aiye hum apne bachhon ko is se parichit karayen, hum isme likhen, baten karen.

Udan Tashtari said...

खतरनाक सत्य उठाया है..हम मुहाने पर बैठे आपके अगले चरण को देखते हैं.

संगीता पुरी said...

मुझे नहीं लगता कि लिखने या पढने के नाम पर हमारी भाषा में जितने विवाद उठते हैं .. उतने दूसरी भाषाओं में भी उठते होंगे .. हिन्‍दी के साहित्‍यकार हिन्‍दी के इतने जटिल स्‍वरूप के पक्षधर हैं .. जो जनसामान्‍य को समझ में आ ही नहीं सकता .. किसी भी समाज में वैसे साहित्‍य का क्‍या फायदा ?

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