Thursday, July 30, 2009

जो आज का यथार्थ है, उसे स्वीकार क्यों नहीं करते?

चलिये खुलकर बातें करते हैं। पूरे देश की राजनीति में तीन चीजें महत्वपूर्ण हैं।

  1. भाजपा का बतौर राष्ट्रीय पार्टी कमजोर होना
  2. कांग्रेस का पूरे देश में अप्रत्याशित जीत के साथ उभरना
  3. क्षेत्रवाद की आंधी का पूरे देश में बहाव

देश में क्षेत्रवाद की जो अंधी आंधी बह रही है। उसमें कैसे नेतृत्व की जरूरत है, ऐसा नेतृत्व जो पूरे देश को समूह के रूप में एक करके ले चल सके। यहां इस समूह में सारे वर्ग और लोग आते हैं।

(यहां ये उल्लेख जरूरी है कि भाजपा ने चुनाव के समय जो आतंकवाद का कार्ड खेला था, वह सफल नहीं हुआ। क्योंकि उसे उस बहुसंख्यक वर्ग का समर्थन नहीं मिला, जिसकी उसे अपेक्षा थी। भाजपा जाहिर तौर पर देश के खास वर्ग का विश्वास जीतने में सफल नहीं रही।
वरुण गांधी आये, थोड़े दिनों के लिए पूरे देश में मीडिया के बलबूते छाये रहे और फिर अप्रभावी साबित हुए। नरेंद्र मोदी भी खासे प्रभावित नहीं कर पाये)

हमें ये समझना होगा कि भारत में सिर्फ एक वर्ग के लोग नहीं रहते हैं। यहां पर जो आबादी का मिश्रण है, उसमें एक खासा संतुलन बनाये रखने की जरूरत है।
पूरे देश में जो क्षेत्रवाद की आंधी बह रही है। जहां रोज एक नया क्षेत्रीय दल उभरता है। जहां एक राज्य के व्यक्ति के साथ दूसरे राज्य में दोयम दर्जे का व्यवहार होता हो। साथ ही पूरे देश में जब अलगाववाद, आतंकवाद और नक्सल जैसी समस्याएं उभर कर सामने आ रही हों, तो उनसे मुकाबला करने के लिए सशक्त केंद्रीय नेतृत्व की जरूरत महसूस होती है। ये एक पार्टी को पूरा जनादेश मिले बिना संभव नहीं है। अब जब राजनीतिक परिस्थितियों पर नजरें गड़ाते हैं, तो भाजपा की परिस्थिति को देख थोड़ा संशय जरूर होता है।

अब राहुल, सोनिया से इतर आप यदि कांग्रेस को देखते हैं, तो कांग्रेस को भी भाजपावाली स्थिति में ही पायेंगे। क्योंकि अति महात्वाकांक्षी नेताओं की फौज वहां भी है। इससे ज्यादा जोगी मठ उजाड़वाली कहावत लागू हो जायेगी। आज राहुल गांधी के यथार्थ को स्वीकार करना हमारी-आपकी मजबूरी है। ये अब आप गाकर या रोकर स्वीकार करें, या मौन रहकर।

झारखंड में पूर्ण जनादेश नहीं मिलने के कारण पूरी सरकार निर्दलीयों पर निर्भर रही। आज झारखंड बेहाल है। विकास के मामले में झारखंड पिछड़ कर रह गया है। गंठबंधन की राजनीति का इससे गिरा स्वरूप और कुछ नहीं हो सकता। वामपंथी पार्टियों द्वारा पिछली सरकार में दिये गये चोट को कोई अभी भी भूला नहीं होगा। वैसे फिर बहुमत साबित करने के नाम पर जो नौटंकी हुई, उसने गत और भी गिरा दिया

देश को पूर्ण जनादेश चाहिए। अब समय के क्रम में कोई तीसरी धारा सामने आये, तो बात अलग है। लेकिन राहुल के तौर पर जो विकल्प है, उसी के सहारे देश को आगे बढ़ना होगा। ये बात जाहिर है कि कांग्रेस की आनेवाली रणनीति राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही बनेगी या बिगड़ेगी। वैसे में पूरी राजनीति को उनसे अलग कर देखना मजाक करने की बात होगी। आज का यथार्थ यही है।

कम से कम कांग्रेस का मामला भाजपा से तुलनात्मक रूप से हर वर्ग में थोड़ा साफ-सुथरा लगता है। वंशवाद और गांधीज्म से इतर बात करें, तो मामला साफ और पेंच रहित है। दूसरा, ये तो जनादेश पर निर्भर करेगा कि वह किसे चुनता है।

मैं यहां एक बात कहना चाहूंगा कि ब्लागर बंधु ये न पूछें कि राहुल गांधी में क्या गुण हैं? हम यहां व्यक्तिगत टीका टिप्पणी करने नहीं आये, बल्कि मामले को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश की है। यहां राजनीतिक परिस्थिति की विवेचना कर रहे हैं। उसके अलावा और कुछ नहीं।

1 comment:

Shiv said...

"आज राहुल गांधी के यथार्थ को स्वीकार करना हमारी-आपकी मजबूरी है।"

मजबूरी का नाम राहुल गाँधी?

"वामपंथी पार्टियों द्वारा पिछली सरकार में दिये गये चोट को कोई अभी भी भूला नहीं होगा। वैसे फिर बहुमत साबित करने के नाम पर जो नौटंकी हुई, उसने गत और भी गिरा दिया।"

वामपंथियों से समर्थन किसने लिया था? जहाँ तक मुझे याद है, कांग्रेस ने ही लिया था. बहुमत साबित करने के लिए लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की धज्जी किसने उड़ाई थी?

अब आप यह मत कहियेगा कि इसके लिए ज़रदारी साहब जिम्मेदार हैं.

"वैसे में पूरी राजनीति को उनसे अलग कर देखना मजाक करने की बात होगी। आज का यथार्थ यही है।"

यथार्थ यही है, यह बात समझ में आती है. लेकिन कृपा करके यह न कहें कि सबसे काबिल राहुल ही हैं. यथार्थ अगर है तो कांग्रेस पार्टी के लिए लागू होता है. ऐसे में यह साबित करना कि यह तथाकथित यथार्थ पूरे देश के लिए है, कहाँ तक उचित है? यथार्थ या मजबूरी के नाम पर अगर आप राहुल गाँधी को प्रोजेक्ट करते हैं, तो फिर बहस की गुन्जाईस कहाँ है? हमें यह मानकर संतोष कर लेना पड़ेगा कि राहुल ही देश की नैया पार लगायेंगे. चाहे बीच मजधार में वे नाव छोड़कर निकल लें.

"कम से कम कांग्रेस का मामला भाजपा से तुलनात्मक रूप से हर वर्ग में थोड़ा साफ-सुथरा लगता है। वंशवाद और गांधीज्म से इतर बात करें, तो मामला साफ और पेंच रहित है। दूसरा, ये तो जनादेश पर निर्भर करेगा कि वह किसे चुनता है।"

आप केवल यह कहें कि जनादेश पर सबकुछ निर्भर करता है. तुलनात्मक रूप से अगर आपको कांग्रेस का मामला साफ़-सुथरा लगता है तो मैं यही कहूँगा कि आप पत्रकार होने के बावजूद अपनी आँखें बंद रखते हैं. (या फिर पत्रकार हैं, इसलिए आँखें बंद रखते हैं?)

पिछले न जाने कितने वर्षों में लोकतान्त्रिक संस्थानों और मर्यादाओं की बखिया जिस तरह से कांग्रेस ने उधेडी है, उस तरह से किसी ने नहीं उधेडी. आप रिकॉर्ड उठाकर देख लें, चाहे तंत्र का दुरुपयोग हो, न्यायालय का अपमान हो, अपने लोगों को फंसने से बचाने की बात हो या फिर संसदीय लोकतंत्र की ऐसी-तैसी हो, कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से काम किया है, उस तरह से किसी पार्टी ने नहीं किया.

पत्रकारों की याददाश्त बहुत छोटी होती है. इसलिए मैं आपको इस तरफ से पीछे ले चलता हूँ. अभी हाल ही में संसद में बजट पेश किया गया. सदन में खड़े होकर कांग्रेस के वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में डिसइनवेस्टमेंट को लेकर एक शब्द नहीं कहा. लेकिन शाम होते ही वे और उनके मंत्रालय के अफसर टीवी पर बोलना शुरू कर देते हैं कि किन-किन कंपनियों का डिस-इनवेस्टमेंट होना है. मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर आपको संसदीय लोकतंत्र में विश्वास है तो फिर संसद और उसके सदस्यों से भागना कैसा? आपको किस बात का डर है?

अभी एक साल भी नहीं गुजरे, सब ने देखा कि न्यूक्लीयर डील को किस तरह से पास करवाया गया. सुप्रीम कोर्ट के लताड़ने के बावजूद क्वात्रोकी को अर्जेंटीना में किस तरह से छोडा गया? क्वात्रोकी के फ्रीज़ किये गए खातों को किस तरह से छुडा दिया गया? गोवा में इनके गवर्नर ने किस तरह से वहां की सरकार गिरवा दी? बिहार सरकार को किस तरह से बर्खास्त किया गया था? आप भूल गए कि ए पी जे अब्दुल कलाम को रूस में रात को जगाकर फैक्स मंगवाकर बिहार सरकार को बर्खास्त किया गया था? बिहार की बात जानें दें. आपके राज्य में आज प्रशासन की जो छीछालेदर है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?

इस तरह के न जाने कितने मामले हैं.

एक पत्रकार की नज़र को ईमानदारी से घुमाइए प्रभात जी. प्लीज.

अगर आपको लगता है बाकी के लोग पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं तो वही लोग आप पर भी यही इल्जाम लगा सकते हैं. कांग्रेस पार्टी जब बहुमत में नहीं थी, तब उसने अपनी सरकार किस तरह से चलाई है, यह हमसब जानते हैं. आपके राज्य के ही चार सांसद थे. नहीं? नरसिम्हा राव, पैसा...पंजाब नेशनल बैंक...कैश जमा...कैसे भूल जाते हैं जी? पिछले साल संसद में क्या-क्या हुआ, कैसे भूल जाते हैं?

बहुत कुछ है जी लिखने के लिए. आप बहस जारी रखिये, हम फिर आयेंगे.

हाँ, यह ज़रूर याद रखियेगा कि बहुमत न होने पर जो पार्टी कंधे पर चढ़कर बैठ सकती है, उसे अगर बहुमत मिल गया तो वह बादल पर चढ़कर न जाने क्या-क्या करेगी.....सबकुछ जल्दी ही पता चलने लगेगा और तब हम और आप बैठकर तुलनात्मक अध्ययन करेंगे.

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