Monday, July 27, 2009

अब सामने की पहाड़ी पर रहता है सन्नाटा

घर के सामने की पहाड़ी पर आजकल सन्नाटा पसरा रहता है। ऐसा नहीं है कि आबादी घट गयी है या लोग कहीं चले गये हैं। लोग आज भी वैसे ही हैं, एक्टिव हैं। लेकिन अब पहाड़ी पर घूमने नहीं जाते। मैदानों में पहले जैसी भी़ड़ नहीं होती। बचपन में हमारे ज्यादातर फुर्सत के पलों में पहाड़ी पर चढ़ना और ऊंचाई से रांची की खूबसूरती का मजा लेना एक शगल हुआ करता था।

पहाड़ी पर बनाये जा रहे मकानों ने उन खूबसूरतों लम्हों को यादों में कैद कर दिया है। प्राइवेसी भंग नहीं हो, इसलिए लोग पहाड़ी पर घूमने नहीं जाकर, कहीं और जाना पसंद करते हैं। शांत, स्थिर मन से कहीं किसी जगह बैठकर कुछ देर चित्त शांत करने की चेष्टा हर कोई करता है। उसी सिलसिले में रांची जैसी जगह में पहले काफी अवसर थे कि आप आराम से बिना किसी रुकावट के प्रकृति का आनंद ले सकते थे। दुर्भाग्य से आज कोई ऐसी जगह नहीं बची, जहां से आप अपनी छुट्टियों को कुछ अलग रंग दे सकें।

हरियाली में लगातार कमी हुई है। कंक्रीट के जंगल बढ़े हैं। साथ ही मेट्रो की तर्ज पर शहर को अलग रूप देने का प्रयास हो रहा है। अगर कोई बंदा आज से १५ साल पहले की रांची को खोजता हुआ फिर यहां आ जाये,तो उसे घोर निराशा ही हाथ लगेगी। यांत्रिक होते जीवन में कोई भी ऐसा लोकेशन नहीं बचा है, जहां आप अपने तनाव दूर कर सकें। जो झरने, पहले आनंद का परिचायक थे, वे भी अव्यवस्था के शिकार हैं। मन ये सोचकर दुखता है कि आनेवाली पीढ़ी के लिए हम क्या छोड़ कर जा रहे हैं? मशीनी जीवन, कंक्रीट के जंगल और खत्म होती हरियाली।

2 comments:

Udan Tashtari said...

चिन्ता जायज है!!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बहुत बुरा आलम हो चुका है. पेड़-पौधों की फसल की जगह वोटों की फसल ने ले ली है इसलिये चारों ओर वोट ही दिखाई देते हैं.

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