Sunday, August 23, 2009

बौद्धिक जुगाली के नाम पर मिल रही अफीम की गोली

जसवंत जी बड़े आदमी हैं। जिन्ना पर किताब लिखी। इतिहास के जानकार हैं। इस किताब को लिखने में न जाने कितनी ऊर्जा लगायी होगी। एक प्रतिनिधि, सांसद होने के तौर पर उनसे हम तत्कालीन मुद्दों पर बेबाक नजरिये की अपेक्षा करते हैं। मुझे ये एतराज नहीं है कि उन्होंने जिन्ना के मुद्दे पर किताब लिख डाला।

मेरा मानना है कि बौद्धिक जुगाली के नाम पर जो तथाकथित कोहराम मचा है, उसमें मीडिया से लेकर तमाम अखबार और पत्रिकाएं रंगी होती है। ५० साल पीछे बहे लहू की यादों को ताजा करने की चेष्टा किस कदर आदमी को झकझोरती है, ये उसका उदाहरण है। हर आदमी को अतीत प्यारा होता है। आप उसे जितना कुरेदियेगा, वह आपको उतना बतायेगा। अपना संघर्ष, अपनी जिजीविषा, गुस्सा और तमाम जद्दोजहद को निकाल कर सामने रख देगा। आजादी और आजादी के बाद के दिनों कोदेखानेवाले वर्तमान वृद्ध कैटेगरी के लोग शायद स्वार्थवश उन यादों से पीछा नहीं छुड़ा पाये हैं। इसलिए आज वे उन यादों को याद करते हुए किताबे लिख डालते हैं, जिनका आज की राजनीति और परिस्थिति से कोई संबंध नहीं है।

अगर आज के पाकिस्तान में जिन्ना आ भी जायें, तो उन्हें सिर पकड़ कर ही बैठना होगा। क्योंकि उन्होंने कभी इस्लाम के तालीबानी संस्करण की कल्पना नहीं की होगी। आज पाकिस्तान बलुचिस्तान, आतंकवाद और कमजोर आर्थिक हालात के तीन रास्तों के गोलचक्कर पर खड़ा होकर कन्फ्यूज्ड है। आगे आनेवाला भविष्य क्या होगा, वह खुद नहीं जानता। यहां भारत में भी कोई विभाजन के दर्द को याद नहीं करना चाहता है।

आज भारत में मंदी, बेरोजगारी, नक्सलवाद और उसके साथ अंध धर्मवाद की जो नकारात्मक छाया मंडरा रही है, उसके बीच एक सांसद से हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं? वह भी जसवंत सिंह या और किसी श्रेष्ठ बौद्धिक स्तर के व्यक्ति से। हमारा ये मानना है कि अगर कोई इस देश के लोगों को सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा करता है, वह यहां की समस्याओं पर बहस चलाने का काम करे। संसद जैसे उच्च मंच पर मुद्दों को उठाकर ऐसी मुहिम चलाये कि सरकार उसे लेकर गंभीर हो। लेकिन जिन्ना, इतिहास और अंगरेजियत की बहस में व्यावहारिक समस्याओं से मीडिया के साथ नेतागण भी शायद मुंह मोड़ने लगते हैं। कुछ समय के लिए झूठी बहस की अफीम लेकर हर कोई मस्त हो जाता है।

हम इस मुगालते में रहते हैं कि हम इस बहस में शामिल होकर तथाकथित इलिट वर्ग के हिस्सेदार हो गये हैं। खासकर अंगरेजी मीडिया इन बहसों के इतर मूल बुनियादी समस्याओं की बहस को लेकर कम संजीदा नजर आता है।

महत्वपूर्ण सवाल ये है कि आज की जो पीढ़ी है, वह पाकिस्तान, आजादी और उसके बाद के परिवर्तन के बारे में कितना जानना चाहती है। जानना चाहती होगी, लेकिन आज के दौर में जब वे सारी समस्याएं मुंह बाये खड़ी है, जिनके सामने हमारे खुद के जिंदा होने का अहसास दबा प्रतीत होने लगता है, तो इतिहास को खंगालना बेमानी लगता है। अपनी संस्कृति और अपनी धरोहर को बचाने की चिंता बेजा लगती है। यहां ये पूरी प्रक्रिया फुटबॉल के मैदान में चेस गेम खेलना जैसी लगती है।

वैसे भी भाजपा के नेता और उनके कार्यों को लेकर आनेवाले दिनों में ऐसी ही बहस होगी। क्या भाजपा को जिन्ना और धर्म से ज्यादा लगाव था या उनके नेताओं ने जिन्ना के बहाने ऐसा अंडर करंट बहाने का प्रयास किया, जिसकी चपेट में आकर लोग खुद को बर्बाद और उनको आबाद करते चले जायेंगे।

जिन्ना का मसला सेंसिटीव मसला है। जिन्ना या ऐसे भी जितने मुद्दे हैं, उन्हें लेकर जो ऊर्जा, समय और संसाधन इस देश के बौद्धिक जुगाली करनेवाले बर्बाद करते हैं, वह सचमुच में विवाद का विषय है। विवाद का विषय ये कि उन्हें ये आइडिया ऐसे वोलटाइल या यूं कहें हलचलवाले समय में क्यों आया? जसवंत सिहं रक्षा के साथ अन्य विषयों के जानकार हैं, तो वे चीन या अन्य देशों के द्वारा हमारी ओर बढ़ानेवाले कदमों के बारे में क्यों नहीं लिखते हैं? वे अपनी पिछली सरकारों और अभी की सरकार के कार्यों को लेकर ऐसी गंभीर मंथन क्यों नहीं करते, जैसा वे जिन्ना या पाकिस्तान को लेकर करते हैं?

आज उनकी किताब का एक बड़ा पाठक वर्ग भी तैयार हो रहा होगा, लेकिन इसी बहाने लोगों को उनकी समस्याओं से अलग सपनों की झूठी दुनिया में जिंदा रखने का जो मंच तैयार किया जा रहा है, वह कितना जायज है?

क्या इसी बहाने विपक्ष की ताकत कमजोर नहीं हो रही? साथ ही सरकार की कमजोरियों की तरफ से लोगों को ध्यान नहीं भटक रहा? जब सारा देश कई समस्याओं से एक साथ जूझ रहा है, तब हम आडवाणी या जसवंत सिंह जैसे नेताओं से क्या अपेक्षा करें? ये प्रश्न अहम है.


वैसे भी हिन्दुवाद, धर्म, देश और वंशवाद से अलग भाजपा ने दूसरी बातों को लेकर बहस की गुंजाइश कम देखी है। यही कारण है कि भाजपा का चिमनी का चढ़ा कलेवर धीरे-धीरे उतार पर है। और उसके अंदर कमजोर व दरकता ढांचा साफ नजर आ रहा है। अभी समय, सच्चाई के साथ देश की जनता का साथ देने का है, उन्हें भ्रम की स्थिति में लाने का नहीं।

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

यही बात मेरे भी दिमाग में घूम रही है कि जसवन्त सिंह कब इतिहासकार हो गये? यह पुस्तक लिखने का उनका असली उद्देश्य क्या था?

Anonymous said...

जसवन्त सिंह इतिहासकार नहीं राजनीति में इतिहास की बात बनने जा रहे हैं.

हरि जोशी said...

ये कहना गलत है कि अंग्रेजी मीडिया को देश की बुनियादी समस्‍याओं से सरोकार नहीं है बल्कि सच ये है कि हिंदी मीडिया आजकल छिछला हो रहा है; भूत-प्रेत से लेकर तमाम अंधविश्‍वास और तर्कहीन चीजें आजकल हिंदी मीडिया में ही ज्‍यादा हैं। हिंदी का होने के बाद भी आजकल मैं अक्‍सर शर्म महसूस करता हूं। दूसरे ये कहना कि जसवंत कब से इतिहासकार हो गए; गलत है क्‍योंकि सवाल इतिहासकार होने या न होने का नहीं है बल्कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का भी है। मैने किताब नहीं पढ़ी लेकिन जिन्‍होंने किताब पढ़ी है वह इस पर बहस/चर्चा/भर्त्‍सना कर सकते हैं लेकिन सात सौ पेज की किताब पर रिलीज होते ही हाहाकार मच गया और बिना पढ़े ही पार्टी ने उन्‍हें बाहर कर दिया। ये कई सवाल जरूर खड़े करता है।

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