आखिर अटल बिहारी वाजपेयी के बाद आडवाणी भाजपा को उत्थान की ओर क्यों नहीं ले गये? ये एक बड़ा रुचिकर मसला है बहस के लिए। आनेवाले दिनों में इसी बात को लेकर बवाल होता रहेगा। जसवंत, यशवंत और अब अरुण शौरी के बगावती तेवर ठीक विधानसभा चुनाव के पहले पार्टी के लिए नुकसानदेह बातों को ताकत दे रहे हैं। हमारे ख्याल से आडवाणी कभी भी आम आदमी की भाषा में बातें करते हुए नहीं पाये गये।
मुझे तो निकाली गयी रथयात्रा के वे दिन भी याद आते हैं, जब हम माध्यमिक की परीक्षा पासकर जय श्रीराम का उद् घोष करती भीड़ के पीछे उचक-उचक कर आडवाणी के चेहरे को देखने की कोशिश कर रहे थे। उसी के साथ भगवा का रंग देश में छाने लगा था। अब की बारी अटल बिहारी का नारा भी बाद सुना।
अटल बिहारी वाजपेयी के सौम्य चेहरे के पीछे आडवाणी खड़े रहे। भाजपा का घाव मखमल पट्टी से ढंका रहा। उस समय के नेता अनुसरणकर्ता के तौर पर पीछे-पीछे चलते रहे। लेकिन इन दस सालों में पावर का स्वाद चखकर रंग-ढंग पूरी भगवा बिरादरी का ऐसा बदला है कि यहाँ एक-दूसरे को ही निशाना बनाने पर तूल गये हैं। कांग्रेस या अन्य दुश्मन पार्टियां तो अंदर ही अंदर गदगद हो रही होंगी।
आडवाणी हमेशा स्पेशल बने रहे। टीवी के कैमरों के सामने वे आते थे, नीति और सिद्धांतों की बातें होती रहती थीं। भाजपा शासनकाल में तो उनकी तुलना पटेल से की जाने लगी थी। लेकिन पटेल ने जहां देश को एक किया, वहीं ये अपनी पार्टी को एक नहीं रख पाये। ये विडंबना ही उनके दूसरे पटेल होने के दावे को खोखला कर देती है।
आम आदमी ही किसी पार्टी की ताकत होता है। भाजपा के पास जनाधार वाले नेता कितने ? आम
आदमी की भाषा कितने लोग बोलते हैं? अटल जी आदमी की नस को पहचान कर बोलते थे। उनकी जुबान, उनका व्यक्तित्व लोगों को घरों से निकलने को मजबूर कर देता था। कभी उनकी शैली आक्रामक नहीं रही।
यहां आडवाणी ठीक चुनाव के पहले युवाओं को लैपटॉप देने का वादा करते रहे। एक दिग्भ्रमित करने की पहल जारी रही। आम आदमी देखता रहा कि रोजी, रोटी के लिए और उनकी जुबान में बातें करनेवाले लोग भाजपा में नहीं हैं। यही बात आम जनता को नागवार गुजरी और भाजपा को नकार दिया गया। जहर घोलनेवाले बोल बेअसर रहे।
ये बातें भी सौ प्रतिशत सही हैं कि अगर भाजपा जीत जाती, तो आज भाजपा में बगावत नहीं होती। हर कोई मुस्कुराता रहता। लेकिन यहां तो घर लुट चुका था, देनेवाले के पास भी कुछ नहीं था, तो कोई क्यों रहे टूटे घर में? बूढ़े हो चले बाजू में शायद उतनी ताकत नहीं रही। कोई भी संगठन त्याग मांगता है। यहां भाजपा में त्याग के नाम पर कोई आगे आने को तैयार ही नहीं है। हम किसी से कम नहींवाली फिल्म जारी है।
हालात ये हैं कि बीजेपी को कोई भारतीय जोकर पार्टी बोल रहा है, तो कोई भारतीय जिन्ना पार्टी। जो भी हो, ये देश और राजनीति के लिए बेहतर नहीं है।
Monday, August 24, 2009
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1 comment:
भारत में दो ही बाते प्रभावित करती हैं या तो त्याग या फिर ग्लेमर। वाजपेयी जी कवि थे आम आदमी की भाषा समझते थे लेकिन अपने आपको दूरी बनाकर चलने से जनता में प्रभाव नहीं पडता। लेकिन भाजपा में ऐसा कोई भी नेता नहीं है जो इस तथ्य को समझ रहा हो।
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