बड़े दिनों के बाद शहर के मेन रोड की तरफ निकला। रेंगती गाड़ियों के साथ हौले-हौले बढ़ते अपने दोपहिया वाहन से मन कहीं दूर कुछ तलाशने लगा।
क्या ये वही शहर है, जो किनारे पर खड़े फुटपाथी दुकानदारों से अटा पड़ा रहता था। ये लो, वो लो, ये देखो, वो देखो चिल्लाते खुदरा दुकानदार जिंदगी में एक मजा ला देते थे। एक दिन पैदल ही चक्कर काटते-काटते गोलगप्पे का स्वाद चखते मन कुछ ऐसा रमा था कि दिनभर दफ्तर को भूलकर ऐश किया था।
सोचता हूं कि क्या समय के साथ इतनी कृत्रिमता क्यों आ गयी है? बड़े लोगों से शहर भर गया है। अब तो एक लाख में नैनो लेकर लोग सड़कों पर निकलेंगे। लेकिन जरा सोचिये, नैनो लेकर चलायेंगे कहां? सड़क तो चौड़ी हुई नहीं। हां चार पहियों की संख्या जरूर बढ़ गयी। अब तक रेंगता रहा काफिला, रगड़-रगड़ कर रास्ता तय करेगा। इसी के साथ लोगों का गुस्सा फूटेगा, वह कितना ऊंचा होगा, ये अनुमान लगाना मुश्किल है।
मॉल में तो अब गाड़ियां रखने के लिए जगह नहीं होती। सिमटते जा रहे शहर, खाली होते गांव और भारत-इंडिया में बढ़ता अंतर गजब का खेल कर रहा है। यही कारण है कि उड़ीसा का एक गांव इंडियाज गॉट टैलेंट में पहला स्थान पाता है और बताता है कि सपने सिर्फ शहरवाले नहीं देखते, गांववाले भी देखते हैं। लेकिन शहरवालों का सपना कब तक टिकेगा। बैलून में बढ़ती जा रही हवा कब तक टिकेगी? ये अहम सवाल है।
Tuesday, August 25, 2009
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1 comment:
बिलकुल ठीक कह रहे है आप.. शहरो का तो यही हाल हो रहा है..
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