Wednesday, September 30, 2009

धर्म की सही व्याख्या क्या है?

नौ दिन की पूजा के बाद मां की विदाई रूला जाती है। पानी में धीरे-धीरे उतराती मूर्ति जीवन और मृत्यु के बीच झूलती जिंदगी का अहसास करा जाती है। इन सब सवालों के बीच मां से खुद की, परिवार की और विश्व की शांति की कामना करते रहते हैं सभी। जो जहां है, वहां उसका अहसास जुड़ा रहता है। हमारा जैसे मां दुर्गे के साथ है। वैसा ही कुछ दूसरे धर्म के लोगों का अपने ईष्ट के साथ है। इन अंतरद्वंद्वों के बीच धर्म की व्याख्या हर जगह अधूरी नजर आती है। सब अपने धर्म को महान बताते हैं। कहते हैं कि फलाने- फलाने ने ये कहा। हम कहते हैं कि आप इस या उस धर्म से पहले, अस्पताल में जाकर किसी मरीज की सेवा क्यों नहीं कर लेते। एक प्यासे को पानी क्यों नहीं पिलाते। पहले भी इसी मुद्दे पर यही बात लिख चुका हूं। पत्थरों पर सर फोड़ते हुए हमारा सर भी पत्थर की माफिक सख्त हो चला है। मृत्यु के भय से दूर जीवन सपाट हो चला है। गुरु की तलाश में मन भटक रहा है। कोई तो बताये कि हमारा सच्चा मार्ग क्या है? हम तो पूजा, पाठ के बाद उसी जिंदगानी के चक्रव्यूह में फंसकर बर्बाद होते रहते हैं। मेरे लिये कर्म करना धर्म रहता है। क्योंकि कर्म के बिना दुनिया नहीं चल सकती। बिना कर्म के रोटी नहीं मिल सकती। लाखों किसानों की कमरतोड़ मेहनत के बाद हमें एक थाली भोजन नसीब होता है। उस कर्म को कैसे दरकिनार करें। धर्म पर तो वे बहस करते हैं, जिनका पेट भरा हुआ है, जिन्हें कमर नहीं हिलानी है और सर पर अगली सांझ तक परिवार के लिए रोटी जुगाड़ करने का बोझ नहीं है। विचारों की दीवार बनाकर धर्म के लिए नसीहत देनेवालों में मैं नहीं हूं। मैं आज भी सूखे से त्रस्त उस किसान परिवार का हिस्सा बनना चाहता हूं , जिन्हें सरकार या बैंक से कोई मदद नहीं मिलती है। सच्चा धर्म तब हो, जब गरीब किसानों का लोन माफ हो और उन्हें खेतों में हल चलाने के लिए सहारा मिले। संघर्षों से भरे जीवन में धर्म के लिए कोई जगह नहीं होती। दिमाग जब खाली होता है, पेट जब भरा होता है, तो धर्म की दीवानगी कानों के सहारे नसों में फड़फड़ाती है। अवचेतन चिंघाड़ता है। उन्मादी होना चाहता है। क्योंकि शक्ति का कहीं तो व्यय हो, चाहे इसके लिए धर्म का क्यों न सहारा लेना पड़े। धर्म का अहसास मेरे लिये मर चुका है। कर्म प्रधान समाज और देश में काम की पूजा ही सच्ची पूजा है। उस सर्वशक्तिमान की पूजा तो कर्म करने के बाद सिर्फ दो सेंकेंड के लिए सर झुका कर भी की जा सकती है।

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सही और उत्तम विचार!

Udan Tashtari said...

कर्म प्रधान समाज और देश में काम की पूजा ही सच्ची पूजा है- सही विचार..किन्तु वो दो मिनट भी एक आत्म शक्ति का संचार करते हैं भले ही मनोवैज्ञानिक वजह ही क्यूँ न हो.

शरद कोकास said...

शक्ति भी उन्ही के पास है जो समर्थ हैं ।

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