Sunday, September 20, 2009

पंडित जी, विद्वता, प्रैक्टिकल नॉलेज और ये जीवन

मन कांप रहा था। पैर थरथरा रहे थे। करें या न करें। लिखें या न लिखें। विद्वानों के बीच में रहकर पाया कि हमें संस्कृति, संस्कार और संसार का ग्यान नहीं है। लेकिन प्रैक्टिकल नॉलेज बहुत है। इसी कड़ी में एक कहानी पेश है...
एक पंडित जी थे। उन्हें खुद के विद्वान होने का दंभ था। चारों वेदों के ग्याता थे। पूरी दुनिया उनकी विद्वता से कांपती थी। एक बार रास्ता पार करने करने के क्रम में नदी मिल गयी। वह नाव पर बैठकर नदी पार करने लगे। नाविक अपना नाव मस्त होकर गीत गाते हुए चला रहा था। पंडित जी ने नाविक से पूछा-वह कितना पढ़ा है। नाविक ने बताया कि उसने थोड़ी सी पढ़ाई की है। पंडित जी ने कहा कि उसका जन्म बेकार हुआ। फिर कहा कि अच्छा वेद पढ़े हो या नाम सुने हो, तो उसने उसका भी नहीं में जवाब दिया। इस पर पंडित जी ने अगला सात जन्म बेकार होने की बात कही।

इसी बीच नदी में तूफान आ गया। नाविक ने पूछा-पंडित जी तैरना जानते हैं। पंडित जी ने कहा-वह तैरना नहीं जानते। इस पर नाविक ने सीधे नदी में छलांग लगा दी और कहा-पंडित आपको तैरना नहीं आता। अब आप क्या करेंगे? आपका ये जीवन बेकार हो गया। मैं चला। मुझे तो तैरना आता है।

और यह कहते हुए उसने नदी में छलांग लगा दी।


अब यहां ये बताना जरूरी है कि विद्वान होना ज्यादा जरूरी है या प्रैक्टिकल यानी व्यावहारिक होना।


जिन्हें समझना होगा, वे खुद ही समझ लेंगे और जो न समझें, वे यह कहानी पढ़कर खुश हो लें

3 comments:

संगीता पुरी said...

सहमत हूं आपसे .. किसी भी सिद्धांत का महत्‍व उसके व्‍यावहारिक प्रयोग किए जाने पर ही माना जा सकता है !!

Arvind Mishra said...

कुछौ नया सुनाईये न ,इ बडी बासी बात है !

Ravi Prakash said...

ज्ञानवर्धक!!

-रवि प्रकाश

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