Wednesday, October 7, 2009

ये खेल अब बंद होना चाहिए

दो दिन पहले नक्सलियों ने यहां एक पुलिसकर्मी की हत्या कर दी। सारी जनता चुपचाप बिना किसी प्रतिक्रिया को इस हादसे को पचा गयी। कही से एक ठंडी आह निकलती नहीं दिखाई पड़ी। ऐसा लगा कि मानो सब इस खेल को जान रहे हों। थोड़े दिनों बाद चुनाव भी होने हैं। दल अब अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए, नक्सली धौंस दिखाने के लिए आंदोलन और बंद का खेल करने जा रहे हैं। आम आदमी इन सबके बीच चुपचाप पिसता नजर आ रहा है। केंद्रीय मंत्री बयान दे रहे हैं। नक्सलियों से हिंसा छोड़ने की अपील कर रहे हैं। ये सब रूटीन का हिस्सा मालूम पड़ता है। सेना नक्सलियों के खिलाफ मोरचा खोले, ऐसी सलाहें दी जा रही हैं या आ रही हैं। आखिर इन नक्सलियों को इतनी हिम्मत कहां से आ गयी? आज ये इतने मजबूत कैसे हो गये। राहुल गांधी राज्य सरकारों की आम आदमी तक पहुंच पर सवाल खड़े कर रहे हैं। इस सच को स्वीकार करने में इतनी देरी क्यों? राज्यों में नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, जमाखोरी, दलाली और दम तोड़ती सुरक्षा व्यवस्था के बीच आम आदमी अपना आत्मविश्वास खो रहा है। आखिर किस पर भरोसा किया जाये। किस पर? इस सरकार पर। अगर सरकार है, तो कैसे विश्वास हो कि उसका शासन सही मायने में हैं। घटना के बाद शोकाकुल पुलिसकर्मी खुद अपने विभाग के खिलाफ आंदोलित नजर आते हैं। समझ में नहीं आता ये कैसा खेल हैं? साथ ही इस खेल का असली हीरो कौन है? सब मोहरे के तौर पर बस अपना पार्ट अदा कर रहे हैं। इस पूरे खेल के बीच पिसता आम आदमी जिस दिन अपना धैर्य खो देगा, उस दिन क्या होगा? नक्सली आम आदमी के लिए लड़ने का दावा करते हैं। लेकिन उनका हिंसा का तरीका कितना जायज है, ये वह खुद सोचें। उनकी हरकतें आदमी को शर्मिंदा और भयभीत होने के लिए विवश कर देती हैं। ये हमें डराती हैं। ये खेल अब बंद होना चाहिए।

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