Monday, October 12, 2009

एसी कमरे में बैठकर नक्सली आंदोलन पर बहस

एसी कमरे में बैठकर नक्सली आंदोलन पर बहस होती रहती है। परवान चढ़ती राजनीति का सूरज जोर से चमकता रहता है। एक गरीब की आह जोर बज रहे लाउडस्पीकर में दबकर खत्म हो जाती है। बहस जारी रहती है। आखिर नक्सल समस्या का अंत कहां है? ये भटकाव का दौर क्यों है? क्या फिर से इतिहास लेखन की जरूरत है। कामरेडों के किस्से कहे-गढ़े जाते हैं। मेरे माथे पर इसके साथ ही शिकन की रेखाएं गहराती जाती हैं। इस देश के साथ ऐसा अन्याय क्यों? इस देश के लोग आजादी के बाद भी घुटन की जिंदगी जीने को क्यों मजबूर हैं? अलग झारखंड का बनना, बिहार के टुकड़े होना और उसके बाद इस बदलाव की कवायद ने आखिर मुझे या दूसरे आम लोगों को क्या दिया है? मैं चिंतित और हारा हुआ प्राणी आज खुद को असहाय मानता हूं। असहाय इस लिहाज से कि मीडिया का आदमी, मीडिया का जानकार और दूसरे साथी असलियत जानते हुए भी उसका सामना करने से कतराते हैं। मैं पूछता हूं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्राइम टाइम में पैनल डिस्कशन से क्या होगा? अखबारों के पूरे पन्ने रंगने से क्या होगा? जो लोग नक्सली आंदोलन को लेकर चिंतित नजर आते हैं, वे कभी अंदरूनी हालात के बारे में जानने की कोशिश नहीं करते। इतनी प्रोफेशनस हो गयी दुनिया से डर लगता है। हम ब्लाग पर लिखते हुए खुद बम के गिरने का इंतजार कर रहे हैं। यहां माओवादी किस सिद्धांत के लिए लड़ रहे हैं, क्या वे जानते हैं? झारखंड का पलामू इलाका आज अपराध की राजधानी हो गयी है। वहां पर नक्सलवाद की धमक रूह कंपा जाती है। जहां खुद पुलिसकर्मी की अगवा कर हत्या कर दी जाती है, उस इलाके में आम लोगों का जीवन कैसा होगा, ये सोचनेवाली बात है। कोई हल निकलता नहीं दिखता। बार-बार बुलायी जा रही नक्सली बंद इस इलाके और देश को पिछड़ेपन की अंधी गली में जाने के लिए बाध्य कर रही है। मेरे माथे पर गहराती जा रही लकीरें अब खुद इस दौर की गवाह बनी रहेंगी। आनेवाली पीढ़ी को हम लोग क्या यही सौगात देकर जायेंगे। क्या ये कहानी इसी प्रकार कही जाती रहेगी? कई सवाल हैं, लेकिन इसके उत्तर खोजने के लिए ठोस पहल कौन करेगा।

1 comment:

अपूर्व said...

विचारधाराओं की लड़ाई मे अंततः पिसते वो लोग हैं जो किसी पक्ष के नही होते, बस अपनी असमर्थता की कीमत चुकाते हैं..ऐसी किसी भी जंग मे सबसे ज्यादा कैजुअलिटीज निरपराध सिविलियन्स की होती हैं.

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