Sunday, October 18, 2009

गब्बर, ये दुनिया तुमसे भी खतरनाक है

आज-कल एडवर्टाइजमेंट देखता हूं, तो ये बात माननी पड़ती है कि आपमें किसी भी बात को कहने की शैली होनी चाहिए। आप किसी भी बात या स्तु के लिए सामनेवाले को कन्विंस कर सकते हैं। हर चीज का तरीका होता है। बेचनेवाला बालू को भी खड़े-खड़े बेच सकता है। हम यहां पूरी तरह पेशेवर नजरिया अपनाना चाहेंगे। हम भारतीय लाख दावा करने के बाद भी व्यापार के मामले में फिसड्डी क्यों रहे। हमारी अपनी कोई ऐसी शैली विकसित क्यों नहीं हुई, जिसकी विदेशी नकल करें। हम तो अमेरिकन मॉडल को अपनाकर उसी के आधार पर बिजनेस कर रहे हैं। आज तक दातुन और नीम के पत्ते बेचने के लिए हमने उसकी खूबियों की लिस्ट क्यों नहीं बनायी। वही कोई विदेशी संस्था दातुन को प्लास्टिक में पैककर उसकी क्वालिटी के बारे में दो-चार तमगे लगाकर मार्केट में उसे दस की जगह २० रुपए में बेच डालेगी। बच्चों और परिवार के प्रति व्याप्त प्रेम की भावना का इनकैश करने की प्रवृत्ति एडर्वटाइजमेंट में होती है। ये तेल ले लो, ये शैंपु ले लो, आपकी कमीज उसकी कमीज से कम सफेद क्यों, आप इसे ले ले आदि, आदि। हमारी हालत दिवानों जैसी हो जाती है। अब टीवी के बीच में आता एडर्वटाइजमेंट बोर नहीं करता। वह हमारी बौद्धिक क्षमता बढ़ाता है। स्वप्निल दुनिया की अनोखी कसरत कराता एडर्टाइजमेंट ये बात सुनिश्चित करता है कि उसके द्वारा बतायी जा रही चीज आपकी जिंदगी बदल देगी। पूरी तरह व्यवसायिक होता जा रहा हमार जीवन इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। एडर्वटाइजमेंट मुक्त होते समाज का रूप प्रदर्शित करता है कि आप ७२ घंटे के अंदर फलाने गोली को लिजिये, तो आपका जीवन व्यक्तिगत रहेगा। इस बढ़ती आबादी में आपका योगदान नहीं होगा। एडवर्टाइजमेंट का हमारे जीवन में इतना हस्तक्षेप। सुनकर और देखकर शायद पहले के लोग ऊपर से आश्चर्य जतायें, लेकिन सच्चाई यही है। हमारा मन इन एडवर्टाइजमेंट की कैद में है। हमारे जीवन की दिशा यही तय कर रहे हैं। इकोनॉमी में इनकी पोजिशन ये है कि इनके बिना किसी चैनल या अखबार का चलना मुमकिन नहीं। पूरे सिस्टम के लिए संजीवनी की तरह काम कर रहे इस खेल को समझने के लिए बड़ा तेज दिमाग चाहिए। हम जैसे साधारण इंसान के दिमाग में तो यही बात आ रही है कि इस एडवर्टाइजमेंट की दुनिया विशुद्ध पेशेवर हो गयी है। मधुर और आकर्षक संगीत से युक्त एडवर्टाइजमेंट जहां मन को मोहता है, वहीं ये एक धीमे विष की तरह हमारे समाज की जान को भी निगल रहा है। वक्त संभल जाने का है, इससे पहले कि कोई देरी हो जाये।

4 comments:

Udan Tashtari said...

सजगता तो जरुरी है भाई.

शरद कोकास said...

विज्ञापनो से बचना है तो अपने मस्तिष्क को गुलाम होने से बचाना होगा ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस धीमे विष से बचना होगा। अब भी भारत में अधिकांश खरीददारी विज्ञापन के प्रभाव में नहीं होती।

हरि जोशी said...

शरद जी लाख टके की बात कह रहे हैं। अच्‍छा लेख लिखा है आपने।

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