Tuesday, October 20, 2009

सिब्बल साहब चाहें, तो कुछ भी कर सकते हैं।

हमने जिंदगी में कई पापड़ बेले हैं। सही कहिये,तो साइंस का छात्र होने के कारण उनके दुखों को ज्यादा नजदीक से झेला है। माननीय मंत्री जी कपिल सिब्बल साहब जब १२वीं में ८० फीसदी मार्क्स को अनिवार्य बनाने की बात कहते हैं, तो मन में सैकड़ों सवाल उठ खड़े होते हैं।
जैसे
१. सीबीएसइ और राज्य के बोर्डों की परीक्षा प्रणाली और मार्किंग सिस्टम में जमीन-आसमान का फर्क है। उस दूरी को सिब्बल साहब कैसे निपटेंगे।

२. कोचिंग संस्थानों और एंट्रेंस एग्जाम में प्रतिभागियों की संख्या कम करने का क्या बस यही तरीका है?

३. ये कदम इतने दिनों बाद क्यों उठाया गया?

मानिये या न मानिये, आइआइटी का क्रेज है। हर मां-बाप अपने बच्चे को आइआइटीयन बनते देखना चाहता है। एक जुनून, एक जिद रहती है। वैसे इस कदम से जो सबसे बड़ा फर्क होगा, वह ये होगा कि छात्र बारहवीं की परीक्षा को भी ज्यादा महत्व देंगे। बीच में आइआइटी में पहली परीक्षा में ही नये छात्रों के फेल होने का मसला उठा था। रटंत और प्रैक्टिस बेस्ड तैयारी के सहारे संस्थान में प्रवेश करनेवाले छात्र कान्सेप्ट क्लीयर नहीं होने के कारण संस्थान में पढ़ाई का दबाव नहीं झेल पाते हैं। इसी कारण बारहवीं की पढ़ाई को गंभीर बनाने की ये पहल कारगर भी हो सकती है। काफी सारे मसले हैं।


देश में जरूरत केंद्रीयकृत शिक्षा प्रणाली की है। राज्यों के भरोसे छोड़ी दी गयी विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा का राम-राम हो गया है। अंदरूनी राजनीति और भ्रष्टाचार ने राज्यों खासकर हिन्दी बेल्ट के राज्यों में एजुकेशन सिस्टम का बंटाधार करके रख दिया है। लैब में सामग्री नहीं होती है। प्रयोगशालाओं की हालत खराब है। हालत ये है कि झारखंड-बिहार जैसे राज्य में जिन अभिभावकों की भी स्थिति अच्छी है, वे अपनी संतानों को दक्षिण भारत, महाराष्ट्र या दिल्ली में पढ़ने के लिए भेज देते हैं। दूसरा आइआइटी या मेडिकल के अलावा सफलता के लिए दूसरा कोई विकल्प नजर नहीं आता। ये अलग बात है कि ग्रेजुएशन के बाद एमबीए बुम ने कई लोगों को करियर बनाने में मदद दी है। लेकिन ये उन हजारों छात्रों के लिए गंभीर मसला है, जो यहीं रहते हुए इस सड़ी व्यवस्था में खुद को ढालने का प्रयास करते हैं।

आइआइटी या मेडिकल के स्तर पर जो खर्च होते हैं। और जितनी मेहनत इसमें की जाती है, उसके ज्यादातर छात्र भी मैनेजमेंट या आइएएस जैसी सेवा में मौके तलाशते हैं। नहीं तो विदेश चले जाते हैं। प्रतिभाओं का पलायन देश के लिए नया नहीं है। लेकिन इससे जो नुकसान पूरे सिस्टम को हो रहा है, उसका क्या किया जाये। दूसरी बात कि सिर्फ प्रतिभागियों की संख्या कम करने के अलावा टीचर्स की कमी की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। राज्यों के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी एक गंभीर समस्या बन गयी है। बेहतर शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो रही और जो हैं, वे निराश होकर चुपचाप तमाशा देख रहे हैं।

झारखंड जैसे राज्य में कई सवाल रोज उठ रहे हैं। गिरती जा रही व्यवस्था के के बीच मार्क्स सिस्टम को चयन का आधार बनाना नया तमाशा खड़े करने जैसा है। जरूरत ये है कि आइआइटी जैसे संस्थान देश में क्यों नहीं बढ़ाये जा रहे, जिससे छात्र सिर्फ कुछ चुनिंदा संस्थानों में जाने के लिए खुद को न झोंके। ये कोचिंग संस्थानों के क्रेज को भी खत्म करेगा।

कॉलेज स्तर पर बेहतर व्यवस्था भी छात्रों को निजी कोचिंग संस्थानों की ओर जाने से रोकेगा। वैसी कोई पहल अभी तक नहीं हुई है। सबसे बड़ी जरूरत राज्य स्तर पर शिक्षा को मजबूत बनाने की है। जिससे कला, वाणिज्य जैसे विषयों की भी लोकप्रियता बढ़े और करियर के नये आयाम खुले। ये एक सतत प्रक्रिया है। वैसे सिब्बल साहब चाहें, तो कुछ भी कर सकते हैं।

No comments:

Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive