भक्ति का जुनून देखता हूं। लोगों की भीड़ मंदिरों में जुटता देखता हूं, लेकिन ये आस्था की मार्केटिंग कुछ समझ में नहीं आती। पैसे देकर कवच खरीद कर धारण करने से क्या सचमुच जिंदगी बदल जायेगी। बात कुछ जम नहीं रही। पूजा करते समय अगर दिमाग मुंबई की गली में भटकता रहे, तो इसमें किसका दोष है, और तब भगवान क्या हमारी सुनेंगे? प्रार्थना तो पूरी एकाग्रता मांगती है, उसमें पैसे खर्च कर कवच धारण करने की बात चक्कर में डाल देता है। व्यक्ति में नकारात्मकता को बढ़ावा देते ये चैनल ईश्वर को लेकर भी विश्वास में कमी कर देंगे। इन चक्करों में ज्यादातर लोग भी पढ़े-लिखे तबके से हैं। आस्था की मार्केटिंग पूरे धर्म का बेड़ा गर्क करने के लिए काफी है। वैसे भी आस्था के नाम पर दुकान चलानेवालों ने कचड़ा करके रख दिया है। पता नहीं ये कब बंद होगा?
Sunday, November 1, 2009
न्यूज चैनलों पर आस्था की मार्केटिंग
न्यूज चैनलों पर आस्था की मार्केटिंग की जा रही है। बाजारीकरण के इस दौर में ईश्वर को भी वश में करने का मंत्र कहने की बात कही जाती है। क्या आपका बॉस आपको डांटता है, क्या आपकी किसी से नहीं बनती? क्या आप फेल हो जा रहे हैं, तो कोई बात नहीं, फलाने ताबिज और फलाने माला को मंगाकर धारण कर लिजिए। क्या यार, इतने दिनों तक प्रणाम करता रहा, वह काम नहीं आया, और अब पैसे लगाकर कवच, माला और ताबिज खरीदूं। इतने पैसे हमारे पास नहीं हैं। कर्म से ऊपर आस्था में विश्वास दिमाग घूमा डालता है। ऐसा क्या है कि हमारे खुद के विश्वास में कमी आ जाती है और हमें इसका सहारा लेना पड़ता है। चैनलवाले तो इसे प्रसारित भी करते हैं, लेकिन उसके साथ पट्टी चलाते हैं कि ये एडवर्टाइजमेंट है, इससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं। ये पैसा जो न कराए।
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2 comments:
तरक्की एवं विकास अपने साथ एक अनजान भय प्कैकेज डील में लाते हैं और उनके उपाय भी अनजान होते हैं...इसलिए यह बाबाओं और आस्था का चक्कर तो बढ़ना ही है..घटने की बात तो करिये ही मय.
ये अंधड़ बंद नहीं होगा। जब तक लोग देखेंगे तब तक नहीं बंद होगा। यही एक दलील आखिर तक काम करती है। इसी के नाम पर सब हो रहा है।
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