पुरुष और महिला के बीच रिश्तों की परिभाषा को गढ़ने की कई कोशिशें नाकाम रही हैं। दिल्ली में नगालैंड की लड़की के साथ हुए हादसे में की गई रिपोर्टिंग में पुरुष की गंदी आंखों से महिला को देखने के नजरिये को स्पष्ट किया गया है। ये सही है और गुनाह के लिए गलत नजरिया ही दोषी है।
लेकिन जब खुद फिल्म, एडवर्टाइजमेंट और अन्य प्रसार माध्यमों को देखता हूं, तो मामला काफी हद तक खुद ब खुद बिगड़ा हुआ लगता है। काफी दिनों से इस मामले में लिखने की सोच रहा था, लेकिन मामला ये लगा कि नजरिये को प्रांत, हिन्दी या तमिल पट्टी या देश-काल से अलग हटकर देखने की कोशिश नहीं है। इस पूरी बहस को क्षेत्रीय स्तर पर कायम असमानता के हिसाब से भी देखा जा सकता है। पहले तो जो नार्थ-ईस्ट, उत्तर-दक्षिण की सोच है, वह आधी बात या बहस को मार देती है। मीडिया भी उसे हवा देता है। वह चाहे मामला नार्थ-ईस्ट का हो या मुंबई-बिहार का।
अब थोड़ा इस मामले को प्रचार-प्रसार माध्यमों के स्तर पर भी देखें। फिल्मों, विग्यापनों और अन्य प्रसार माध्यमों में किस एंगल से चीजें को परोसा जाता है, वह भी दुखद कथा से भरी है। जब आदमी बचपन से लेकर बड़े होने तक दिमाग में उन्हीं घटिया चीजों को ठूंसता चला जाता है, तो फिर बड़े होने के बाद उस खास पटरी को लांघ नहीं पाता, जिसके बाद परिपक्वता की श्रेणी में कोई आता है।
अलग और एकाकी होते जा रहे जीवन में आज के युवाओं को कोई ये नहीं समझाता है कि आपकी सही राह क्या है? सामाजिक स्तर पर जो मनमाफिक जिंदगी जीने की तमन्ना है, वह भी बेड़ा गर्क कर दे रहा है। सड़क की दीवारों पर सटी घटिया पोस्टरों को उखाड़ने की पहल कोई क्यों नहीं करता, ये भी अहम है। ये पूरा मामला बड़ा संजीदा है और बड़ा ही संतुलित नजरिया मांगता है। इसे मनोवैग्यानिक के साथ सामाजिक पहलू के स्तर से भी सोचना होगा। क्योंकि इसके सहारे आप एक प्रतिभा को खो रहे हैं, वहीं जो जहर क्षेत्रीयता के नाम पर फैल रहा है, उसका क्या किया जाये?
Monday, November 2, 2009
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4 comments:
प्रभात जी आपकी बातों और तर्कों से असहमत नहीं हुआ जा सकता ..और यही सच्चाई है...सार्थक लेख...एक बात और शायद आप ज्ञ नहीं लिख पा रहे हैं ..ऐसे कोशिश किजीये ..हो जाना चाहिए..ज इसके बाद बिना स्पेस के ~ और फ़िर बिना स्पेस के ज ..हो जायेगा ज्ञ...काम बने तो बताईयेगा ..।
विज्ञापन व टी वी गलत हो सकते हैं किन्तु आज से पचास साल पहले ये नहीं ही थे। फिर भी हालत गंभीर ही थी। जब से होश संभाला यही सब देखती आ रही हूँ।
यह भी सच है कि विभिन्न प्रान्तों में स्त्रियों के प्रति रवैय्या भी अलग अलग होता है। गुजरात में स्त्री होना इतने बड़े खतरे की बात नहीं है जितनी उत्तर भारत में।
घुघूती बासूती
फिल्मों और विज्ञापनों में जो मार-धाड एवं अश्लीलता का प्रदर्शन हो रहा है, उस पर बहस तो शायद साठ के दशक से चलती आ रही है परंतु आज तक भी कोई ठोसे कदम उठता दिखाई नहीं देता। हां, सभी गिरते राष्ट्रीय चरित्र पर चिंता व्यक्त करते हैं॥
सहमत हैं आपसे।
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