१७ साल पहले आज के ही दिन यूं ही शाम के वक्त रेडियो पर समाचारों का दौर चालू था। सिर्फ एक लाइन थी कि बाबरी मसजिद गिरा दी गयी। यानी सद्भाव, सहिष्णुता के किले में कील ठोंक दी गयी। ज्यादा वक्त नहीं बीता था। हम भी राजनीति की एबीसीडी नहीं जानते थे। लेकिन भगवा झंडों के बीच आडवाणी का चेहरा जेहन में बैठ गया था। जुनून और जोश देखकर लग रहा था कि कुछ है। अरुण शौरी जी के लेखों और उमा भारती, विनय कटियार जैसे लोगों के भाषणों के अंश जैसे ये समझा रहे थे कि उस बाबरी मसजिद वाले स्थान को लेकर कोई विवाद है। उस वक्त हमारे जैसे लोग इतिहास की बारीकियों को क्या जानें, जो बताया जाता था, उसे सही या गलत मान लेते थे।
लेकिन बाबरी मसजिद के ध्वंस के बाद मुंबई की हिंसा और उन पर बनी फिल्मों, बदलते राजनीतिक किरदारों, भाजपा के अंदर खुद पैदा हुई फूट और देश के अंदर हालात काफी कुछ समझाते चले गए। ये भी समझाते चले गए कि हाथ मल-मलकर और हिला-हिलाकर रौद्र रूप धारण कर देश के अंदर ही दूसरे भाइयों को ललकारनेवाले हालात या जुनून हमें कहीं का नहीं छोड़ेंगे। अगर बाबरी मसजिद की जगह मंदिर का बनना था या उसकी जगह मसजिद का बनना था या और कुछ, तो ये अब तक हो जाना चाहिए था। नहीं हुआ। जो चाहते थे, वे कुछ कर नहीं सके। जो नहीं कर सके और नहीं कर सकते हैं, वे आज तक ताली पीट-पीटकर तमाशाई विलाप करते नजर आते हैं।
थका हुआ मन अब हमारे जैसे युवक से बार-बार पूछता है कि जिस हालात में आज ये देश है, उसमें इन तथाकथित विशुद्ध देशभक्तों का क्या योगदान रहा? क्या इन्होंने आतंकवाद का सफाया करने का कोई मूलमंत्र सुझाया? क्या इनके पास नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने का कोई कारगर उपाय है? क्या दूसरे लोगों को धर्मांधता का पाठ पढ़ानेवाले खुद को धर्म ग्रंथों या पोथियों के अध्ययन में डूबा पाए हैं। पेट के लिए रोटी चाहिए और उसके लिए पैसा, तो ये पैसा कहां से आए, क्या इसके लिए इन्होंने कोई रास्ता सुझाया? निष्कर्ष यही निकलता है कि कुछ हासिल नहीं हो पाया। यहां पार्टी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन जिस पार्टी ने इन चीजों को लेकर आक्रामकता का सहारा लिया, वह आज कहां है? आज उसके नेताओं के पास कोई उत्तर क्यों नहीं है? क्यों आज तक आडवाणी रथयात्रा की प्रेत छाया से मुक्त नहीं हुए? क्यों लालू आज भी आडवाणी को गिरफ्तार कराने का दंभ पालते हुए वोट मांगते नजर आते हैं?
साथ ही देश और समाज को बांटनेवाले तथाकथित सेक्युलरों को लेकर भी सवाल उठते हैं, जो कि आजादी से लेकर आजतक समाज के विशेष वर्ग के हितैषी बनते रहे हैं, लेकिन आज तक वह वर्ग न्याय की गुहार लगाते नजर आता है। एक ही चश्मे से हर वर्ग को अलग-अलग रंग से देखने की कोशिश होती रही है। इससे जो खाई पैदा हुई, वह इतनी गहराती चली गयी कि उस पर कोई भी सफाई बेमानी नजर आती है। वे सेक्युलर, सेक्युलर शब्द के सही मायने को स्पष्ट नहीं कर पाए हैं। सेक्युलर किसे कहें, जो बहुसंख्यकों की हर बात का विरोध करे और दूसरे वर्ग विशेष का समर्थन या उसे जो हर वर्ग या धर्म को इतना स्पष्ट और संतुलित नजरिया दे, जिससे कोई विवाद पैदा न हो। लेकिन ऐसे प्रतिनिधि कहां और कैसे आएंगे, ऐसी पार्टी या दल कैसे विकसित होगी, ये भी बड़ा सवाल है। सवाल, उस जनता से भी है, जो बार-बार खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारती रहती है।
देश के इतिहास को मोड़ने का दंभ पालनेवाले आज खुद इतिहास होने की ओर उन्मुख हैं। बाबरी मसजिद की कहानी ये बताती है कि हम सब काल क्रम में मिट्टी के ढेर हैं। ऊपरवाले के लिए मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा सब एक है। आप उसे निरंकार मानते हुए पूजें या आकार के साथ, कोई
बात नहीं, उसे हर प्रार्थना मान्य है। इन २० सालों में इस देश ने काफी काले अध्याय देखे हैं, लेकिन बाबरी मसजिद का अध्याय स्याह काले रंग से रंगा वह ब्लैक होल नजर आता है, जिसमें सारी दूसरी कारस्तानियां समाती नजर आती हैं।
अपने देश के उस काले अध्याय पर शर्म की काली छाया के साथ इस लेख का यही अंत।
Sunday, December 6, 2009
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2 comments:
nice
इतिहास मे यह इसी तरह लिखा जायेगा ।
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