Saturday, January 23, 2010
हमारे अंदर में जो कंप्लेक्स है..
वीर फिल्म को लेकर एक बात स्पष्ट है कि इसमें अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष का थीम है। लगान का भी थीम यही था। अंगरेजों से आजाद हुए ६० साल हो गए। हम आज जहां हैं, वहां से पीछे देखने का जुनून एक हद तक अब भी मौजूद है। अंगरेज हावी हैं। दिमाग पर। हमारी दस फीसदी आबादी आज मन से अंगरेज जरूर है। उनकी नजरों में दूसरे भारत अलग होता है। बात को सीधे कहते हुए कहना होगा कि मुझे अब अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष पर बने थीम नहीं जंचते। मुझे वे थीम भी नहीं जंचते जो गरीब भारत की तस्वीर के सहारे खड़े किए जाते हों। हमारे अंदर में जो कंप्लेक्स है, उसे हमारे फिल्मकार भुनाते चलते हैं। अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष का थीम। ग्लोबल होती जा रही इस दुनिया में ये थीम अब कितना कारगर रहा है। सोचिये। अखंड भारत के लिए देशभक्ति के ज्वार को उफनाने के लिए क्या अंगरेजों के खिलाफ किया गया संघर्ष ही आधार हो सकता है। देशभक्ति का जो थीम है, उसका मुख्य आधार क्या हो, ये बहस का उद्देश्य होना चाहिए। हम कैसे दुनिया या खुद को बताएं कि हम देशभक्त हैं। क्या फिल्मी हीरो के गुलामी के प्रति गुस्से पर ताली पीटकर इजहार किया जाए या जो तात्कालिक कारण हमें कमजोर कर रहे हैं, उन पर ध्यान देकर? ध्यान देने की बात ये है कि वैचारिक रूप से हम आज भी कमजोर हैं। हमारे पास या हमारे फिल्मकारों के दिमाग में वह बात या दृष्टिकोण नहीं है, जो वैचारिक धार को तेजी प्रदान करे। जिससे हम इतिहास से दो कदम आगे बढ़कर बात करें। मुझे तो १९४७ के समय कही गयी बातों को आधार बनाकर कही जानेवाली बातें भी विरोधाभासी लगती हैं। जब देश आजाद हुआ, तब और आज में जमीन-आसमान का फर्क है। तब का भारत कुछ और था और अब का भारत कुछ और है। इतने परिवर्तन हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते। जब वैश्विक आतंकवाद की चुनौती हो, नक्सलवाद पर गृह मंत्री अभियान छेड़ने की पहल कर रहे हों और देश में क्षेत्रीय ताकतें बढ़ रही हों, तो वह वैचारिक परिपक्वता न तो फिल्म के स्तर पर और न बहस के स्तर पर दिखती है, जो पूरी जमात को एक मंच पर ले आए। एक मंच। न तो ऐसा कोई प्रतिनिधि दिखता है, जिसके एक शब्द लोगों को एक मैदान में हुंकार मारने के लिए जुटने को विवश कर दें। ऐसा क्यों है, ये सोचने की बात है। शहर में जब हर परिवार एकल और हर एकल परिवार व्यक्ति में सिमट रहा हो, तो अंगरेजों के खिलाफ संघर्षवाला थीम मुझे सिर्फ थिएटर में पैसा बटोरने और जमकर चिल्लानेवाला लगता है। मुझे न तो अंगरेजों के खिलाफ गुस्सा आता है और न ही देशभक्ति का ज्वार फूटता है। मुझे वैचारिक गरीबी के उस हिस्से के दर्शन होते हैं, जिसके कारण आज का भारत या कहें भारतीय समाज विरोधाभास में जी रहा है। इस वैचारिक गरीबी को कैसे दूर किया जाए, क्या कोई मुझे बताएगा? शायद लेख थोड़ा भारी हो गया हो, लेकिन ये जरूरी है कि हम वैचारिक गरीबी के बहस को जिंदा रखें। भारतीय समाज को जिंदादिल रखने के लिए ये जरूरी है। जरूरी है कि जिंदगी में एक खास बदलाव आए। हमें लीडरशिप उस परिपक्वता के साथ मिले, जिनके सहारे अगली पीढ़ी बिंदास होकर आगे बढ़ सके। और उन्हें देशभक्ति के थीम के लिए अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष के जज्बे का ही सिर्फ सहारा न लेना पड़े। मेरा ये मानना है कि अंगरेज अगर हमारे सामने एक छोटी लकीर खींच कर गए हैं, तो हम उनके लिए आनेवाले समय में इतनी बड़ी लकीर खींचकर जाएं कि उन्हें सोचना पड़े बार-बार हमारे लिये।
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1 comment:
फिल्म का तो एक मात्र उद्देश्य मन बहलाव है लेकिन जिन्हें कुछ करना चाहिये वे चुप हैं. हर ओर दिखावा, दुहरे तिहरे चेहरे. घोर निराशाजनक परिदृश्य है.
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