Tuesday, January 19, 2010
कविता और शायरी के रूमानी ख्यालात के बल पर बहकते कदम को रोकिये
जब झारखंड में चुनाव हुए थे, तो चुनाव में माओवाद मुद्दा नहीं था। कहीं भी माओवाद या नक्सली हिंसा के खिलाफ खुलकर नहीं बोला गया। इस मुद्दे पर बहस करने से सब कतराते हैं। गृह मंत्री चिदंबरम जब कहते हैं कि नक्सली आंदोलन युद्ध के बराबर है, तो ये गैर वाजिब नहीं कहते। जहां तक हमारा अनुभव पढ़ने और देखने से निष्कर्ष निकालता है, वह ये है कि माओवाद प्रशासन का आधार आंतरिक सुरक्षा पर वार करते हैं। वे उसे कमजोर करते जाते हैं। उनके रास्ते में आनेवाली हर रुकावट उनकी हिंसात्मक कार्रवाइयों की भेंट चढ़ती जाती है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, बिहार इसकी चपेट में हैं। हर दो-चार महीने में कोई न कोई हिंसात्मक कांड होता ही है। इस मुद्दे पर बहस नहीं होती। राजनेता चुप्पी ओढ़ लेते हैं। नेपाल में माओवादियों के सत्ता में आने के बाद जो अस्थिरता का दौर चला, वह सबके सामने है। जिन देशों में ये कम्युनिस्ट थे, वहां भी ये पतन के दौर में हैं। अब यहां भारत में इनका नए सिरे से उदय हो रहा है। चीन और रूस में कम्युनिस्ट सिद्धांत का पूरा प्रयोग हुआ, लेकिन आज वे पूंजीवाद का दरवाजा खटखटा रहे हैं। सच्चाई से दूर होकर कब तक भागते रहेंगे। यही सवाल है। कृपा करके ब्रेनवाश मत करिये। सच्चाई और जिंदगी का सामना करिये। बात-बात पर आंदोलन ने बंगाल में क्या हाल कर दिया है, देखिये। आंदोलन और क्रांति के आह्वान से जिंदगी नहीं चलती। उसके लिए मेहनत के साथ योजना बनानी पड़ती है। असल और सही पक्ष से अलग कविता और शायरी के रूमानी ख्यालात के बल पर बहकते कदम को रोकिये, यही समय की मांग है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
आपसे सहमत हूं.
"कविता और शायरी के रूमानी ख्यालात के बल पर बहकते कदम को रोकिये, यही समय की मांग है।"
बिलकुल ठीक कहा आपने !
आभार ।
Post a Comment