Friday, February 19, 2010

हम नहीं मानेंगे, चाहें हम गलत हैं, तो ये जड़ता की हद है..



इंटेलेक्चुअल आतंकवाद के नाम पर जो शाबासी और कमेंटों का दौर चालू है, उसमें ये बातें पूरी करना जरूरी है कि नजरिये के लिहाज से शाहरुख का एक विशेष समुदाय से ताल्लुक रखना शायद ज्यादा भारी पड़ रहा है। ब्लाग जगत में ये जो एक सिलसिला जारी है कि हम नहीं मानेंगे, चाहें हम गलत हैं, तो ये जड़ता की हद है। इस पूरी बहस में बेचारे एमएफ हुसैन को ले आना कुछ जंच नहीं रहा। उनकी चित्रकारी उन्हें मुबारक, हमें तो इतनी बुद्धि भी नहीं कि उस पर बहस करें। हमारा तो ये मानना है कि शाहरुख हो या अमिताभ बच्चन, जो भी हों, उनके खिलाफ जो भी नजरिया रखा जाए, उसका एक आधार हो। शाहरुख अपने हिसाब से काम करते हैं। क्रिकेट में पैसे लगाते हैं, तो ऐसा तो अन्य अभिनेता भी करते हैं।

देशभक्ति होने का मापदंड क्या हो, ये तय करना जरूरी है। क्या देशभक्त होने के लिए दिखाने के लिए माथे पर लाल टीका और गले में रुद्राक्ष का होना जरूरी है। अब्दुल हमीद जब छाती पर टैंकों को झेलते हुए शहीद हुए थे, तब उनके लिए क्या बड़ा था। देश या धर्म। वैसे ही जब अब्दुल गफ्फार गांधी यानी सीमांत गांधी रह-रहकर भारत की धरती को चूमने को आया करते थे, तो उन्हें हम क्या कहते। उन्होंने तो दोनों हिस्सों पाकिस्तान और भारत को एक देखा था। सीधा सवाल है कि शाहरुख चूंकि एक विशेष समुदाय से हैं, तो उनका विरोध करो। हम ऐसे विरोध करने की बात को साफ तौर पर नकारते हैं। जब हम ये कहते हैं कि शाहरुख ने इस देश के लिए क्या किया, तो हमें खुद से ये सवाल पूछना चाहिए कि हम जो यहां ब्लागिया रहे हैं, तो हमने खाली समय में इस देश के लिए क्या किया

 यहां बातें ये हो रही हैं कि माइ नेम इज खान के बहाने क्या इंटेलेक्चुअल टेररिज्म किया जा रहा है। यहां ये कहना चाहेंगे कि इस टेररिज्म में कहीं भय का संदेश नहीं है। कहीं ये नहीं बताया जाता है कि दूसरे धर्म का अनादर करो या फिर किसी को गाली दो। 

टेररिज्म एक प्रौपेगेंडा का हिस्सा होता है। यह तभी संभव भी है, जब इसमें शातिर और तेज दिमाग योजनाबद्ध तरीके से काम करें।

अब कौन अच्छा है और कौन बुरा, ये तो किसी के कथन से ही उजागर होता है...

अब जरा इस कमेंट पर गौर करें...




आपको ऐसे सवाल पूछने वालों को तगड़ी लात दी है.... अब किस हिस्से में दी है...यह तो सब समझ ही गए होंगे.... वहां डंडे भी जब पड़ते हैं.... तो दर्द कम होता है... क्यूंकि बौद्धिक आतंकवादी...वहां हमला नहीं करते.... वो दिमाग पर हमला करते हैं.... शाहरुख़ .... मकबूल ... ऐसी औलादें हैं.... जो माँ को बेच कर फ्रिज खरीदते हैं.... 


कुछ लोअर स्टैण्डर्ड , शुद्र दिमाग वालों ने सवाल उठाये थे.... उन्हें यह नहीं मालूम.... कि ----- कि बराबरी करना मुश्किल ही नहीं .... ना-मुमकिन है.... . मैं बेस्ट हूँ..... बेस्ट की बराबरी कहीं होती है क्या? और क्या बेस्ट टुच्चों को जवाब देता है कभी भला?


मेरा शाहरुख़ /मकबूल को गाली देने का मन कर रहा है...


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यहां ये सवाल पूछना जरूरी है--
भाई जी, जब आप बेस्ट हो, तो आप ऐसे शब्दों का इस्तेमाल क्यों करते हो?
दूसरी बात कि आपके बेस्ट होने का पैमाना क्या है?
अगर हम सब टुच्चे हैं, तो कृपा करके भद्र भाषा में बताएं कि अच्छे होने के लिए किस मापदंड का इस्तेमाल करें..
कमेंट कहीं भी करें, तो इस बात का ख्याल रखें कि इससे दूसरे की भावनाएं भी जुड़ी होती हैं...
पांचवीं बात-हमें किसी को गाली देना नहीं आता, हम तो बस किसी को अपना मित्र या बंधु बनाना चाहते हैं... 

फिर वही सवाल कि आप हिन्दी ब्लागिंग को किस स्तर का बनाना चाहते हैं...
अच्छा
बुरा 
बहुत बुरा
या बहुत अच्छा....

आप चाहें, तो इसका जवाब खुद को दें... 

5 comments:

दीपक 'मशाल' said...
This comment has been removed by a blog administrator.
अनुनाद सिंह said...

भैये, वीर अब्दुल हमीद की तुलना इस टुच्चे खान से क्यों कर रहे हो? आपके हिसाब से तो अब्दुल हमीद को युद्ध में यह करना चाहिये था कि पाकिस्तानी टैकों के सामने अपने 'पड़ोसी प्रेम' दिखाते और कहते कि हमे युद्ध नहीं शान्ति की बात करनी चाहिये।

दीपक 'मशाल' said...

meri saadi bhasha me kahi gayi shaleen baat bhi aapko comment hatane layak lagi.. kya ab apne logon ko devi manne se bhi dar lagne laga.. dekha husain ka kamaal

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अब्दुल हमीद, अशफाक उल्ला खां की तुलना एम-एफ हुसैन से ?
एक चीज तो बिल्कुल crystal clear है कि यदि बाकी चित्र भी हिन्दू देवी-देवताओं की तरह हुसैन साहब चित्रित करें तो हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम धर्मनिरपेक्षता का अन्तर स्वय़ं हुसैन साहब को एक ही दिन में समझ आ जायेगा.

Unknown said...

भाई प्रभात शाहरूख या किसी और की स्टार हैसियत अपनी जगह है और उनका एक टीम का मालिक होना अपनी जगह है लेकिन वो ये बता दे तो हम अल्प बुद्धि के लोग समझ ले कि जब मालिक होते हुए आपने विश्व विजेता टीम के एक भी खिलाडी को अपनी टीम के लिये नही खरीदा फिर इस पर बाद मे वाहवाही लूटने की क्या जरूरत आन पडी थी. उनको फ़िल हिट कराने की कोशिश करनी थी वो उन्होने की अब नही हुई तो नही हुई. अब इसमे इतना भी हैरान परेशान होने की क्य बात है? आदमी अपनी तरफ़ से कोशिश करता है कभी सफ़ल होती है कभी सफ़ल नही भी होती.

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