Friday, March 5, 2010

क्या साड़ी पहन लेने, माथे में सिंदूर डाल लेने या घुंघट खींचकर रखने से ही भारतीय संस्कृति की रक्षा होगी?

संस्कृति और संस्कार क्या हैं, इसे लेकर क्या कभी किसी ने सवाल उठाया है?आज जिस प्रकार के कपड़े हम पहन रहे हैं, वे क्या २० सालों के बाद ही पहने जायेंगे? तब क्या उस जमाने की संस्कृति में अलग चीजें नहीं होगी? ये सवाल दिलचस्प है। क्या साड़ी पहन लेने, माथे में सिंदूर डाल लेने या घुंघट खींचकर रखने से ही भारतीय संस्कृति की रक्षा होगी? लज्जा, शर्म के किस रूप को लेकर ये बहस है, ये भी साफ करना होगा।

अपनी गलती पर पश्चाताप करना, शर्म कहलाता है, लेकिन गलती नहीं करते हुए भी खुद को कमजोर समझते हुए लज्जा करना दब्बूपना। क्या नारी से हम उसके दब्बूपन के एहसास तले जीने की कामना करते हैं? अब जब एकल परिवार समाज में बढ़ रहे हैं, तब स्त्री वर्ग को भी बाहरी काम में उसी रूप में भागीदारी निभानी होती है। वैसे में इस तेज गतिवाले समाज में कोई स्त्री या महिला कैसे तेज चलेगी, ये सोचने की बात है।

इंडिया टुडे जैसी पत्रिका ने ही एक सर्वे किया था कि शहरी क्षेत्रों में साड़ी पहनावे के तौर पर कम होता जा रहा है और पश्चिमी परिधान या सलवार-कुर्ता का चलन बढ़ा है, तो इसलिए क्योंकि उसमें रोजमर्रा के लाइफ स्टाइल में सहुलियत होती है। किसी भी बहस का व्यावहारिक पक्ष मजबूत होना चाहिए। यहां हम सिर्फ संस्कार और संस्कृति के नाम पर जो डुगडुगी बजा रहे हैं और लगातार टिपिया रहे हैं, वे फिजूल लगती हैं। वैसे में अगर आलोक मेहता साहब के कथनों पर गौर करें, तो वे कौन सी गलत बात कह रहे थे।

सच्चाई ये है कि हम आज अपनी बेटियों से कल्पना चावला, किरण बेदी, इंदिरा गांधी होने की तमन्ना रखते हैं, लेकिन वहीं भारतीय संस्कृति की थोथी दलीलें देकर उन्हें चुप भी कराने की चेष्टा होती है। संस्कृति कोई ऐसी चीज नहीं होती है, जो कंप्यूटर में फीड है और वह अपने आप उतरती चली जाये। आदमी सुविधनुसार संस्कारों को अपनाता और छोड़ता है, वही संस्कृति है। अगर अंग्रेज कोट और पैंट को ज्यादा तरजीह देते थे, तो वे इसलिए करते थे, क्योंकि वे ठंडे प्रदेश से ताल्लुक रखते थे। वैसे ही हमारे यहां धोती का प्रचलन था, तो इसलिए क्योंकि हमारा प्रदेश गर्म है। भौगोलिक कारण संस्कृति पर हावी रहते हैं। बहस के तात्कालिक कारणों को जानना होगा। यहां तो सीधे तीर-कमान लेकर बहस की हत्या की कोशिश हो जाती है। अगर हम ऐसे ही रहेंगे, तो हममें और कट्टरपंथियों में क्या अंतर रह जाएगा?

9 comments:

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

संस्कृ्ति बसती है विचारों में, इन्सान के आचरण में न कि वेश भूषा पहनावे में......

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

burka pahnane se to jaroor hogi :)

अजय कुमार झा said...

प्रभात जी आपका आशय शायद आलोक मेहता था ........आपने आलोक तोमर लिखा है ...खैर पोस्ट की बातों से सहमत हूं मगर आलोक मेहता जी की इन बातों से सहमत होने में थोडी असहजता सी हुई ...मुझे तो

ब्लॉग दुर्बुद्धि जमात का कूड़ा-कचरा है...
हरेक ने ब्लॉग की अपनी दुकान खोल रखी है...
ब्लॉग में कोई कितनी ही भद्दी-गंदी बकवास-सी गालियां उलच दे, कोई सरकार, कोई मालिक, कोई पुलिस या सेनातक कुछ नहीं बिगाड़ सकती...
ब्लॉग पर लिखने वाला नाली साफ करने वाली स्टाइल में बदबूदार सामग्री दुनिया-जहां में फैला दे, कोई बाल बांकानहीं कर सकता...
ब्लॉग प्रभुओं का एक शब्द, अमेरिकी, चीनी राष्ट्रपति या ब्रिटिश प्रधानमंत्री तक, नहीं कटवा सकता है...खासकरहिंदी ब्लॉग पर उनका बस ही नहीं चल सकता...
ऋषि-मुनियों की परंपरा में हिंदी के ब्लॉग बाबाओं को मुदित, क्रोधित, आनंदित होने का अधिकार सुरक्षित...
वे कुपित होकर ब्लॉग में बड़े से बड़ा शाप दे सकते हैं...
महाभारत के चरित्रों की तरह कोई भी झूठ फैला सकते हैं...
अपना ब्लॉग बना भद्दी गाली का जवाब भद्दी गाली से दे सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि उसे कोई पढ़े…
ब्लॉग की बकवास का जवाब बकवास से क्यों नहीं दे सकते हैं?
आकाश लोक के रास्ते आ रहे ब्लॉग पढ़कर अपनी आंखें खराब क्यों करते हैं...

खैर अपना अपना नजरिया है ...

prabhat gopal said...

waise alok tomar ko alok mehta kar diya.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत बढ़िया लिखा, पूर्ण सहमत !

आग को हवा दी तुम्ही ने थी,
फिर बुझाना क्यों मुश्किल लगने लगा,
परिवेश खुद बिगाड़ा जनाने का तुमने,
ज़माना क्यों मुश्किल लगने लगा ?

Taarkeshwar Giri said...

Mausam ke hisab se kapde tay kiye jaate hain. na ki dharm ya sansktrit ke hisab se.

विनीत कुमार said...

इतनी बड़ी-बडी बातें हमें समझ नहीं आने पाती है। लेकिन इतना जरुर समझता हूं कि संस्कृति जीवन-शैली से निर्धारित होती है न कि आदम जमाने में गढ़े गए फार्मूले से। साड़ी,चूड़ी और सिंदूर तो बहुत ही प्रतीकात्मक चीजें हैं इसके होने या न होने में बहुत फर्क नहीं पड़ता।..

Anil Pusadkar said...

sankar aur sanskriti kapade,sindur aur ghuunghat ki mohtaaz nahi hai.vo andar hoti hai aur ye saari cheeze baahar yaani dikhava.

Anonymous said...

हा हा हा

अगली पोस्ट में बताईएगा प्रभात जी कि
भारतीय संस्कृति आखिर होती क्या है?
खास तौर पर भारतीय नारी के जिम्मे किस तरह की कथित भारतीय संस्कृति होती है?
यदि बता सकें कि इस संस्कृति की रक्षा करने में आपका व्यक्तिगत योगदान क्या रहा तो आभार!

तब इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया देने की सोची जाए

बी एस पाबला

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