Friday, April 23, 2010

मुंह बिचका कर और कंधे उचका कर बोलना क्या जरूरी है?



कल रात एक अंगरेजी समाचार चैनल देख रहा था। एक प्रसिद्ध खिलाड़ी के साथ विचार-विमर्श का दौर चालू था। वैसे तो अंगरेजी बोलने और पढ़नेवाले शायद आधुनिकता में एक पायदान ऊपर रहते हैं। ये बात आप और हम सब समझते हैं। हमारा मकसद अंगरेजी भाषा के प्रति विरोध करना नहीं, बल्कि एंकर के बोलने के स्टाइल यानी बॉडी लैंगुएज से है। मुंह बिचका कर बोलने से जिस बदतमीजी और एकतरफा रूआब का आभास हो रहा था, वह किसी को भी नागवार गुजर सकता है। आप हिंदी और अंगरेजी चैनलों में बोलने के लहजे में साफ फर्क देख सकते हैं। एक भारतीय होने के नाते जिस संस्कार की आप आशा करते हैं, वे यहां कहीं नहीं दिखाई देंगे। हमने कई बार अपनी पोस्टों में अंगरेजी चैनलों के खबरों के प्रति आक्रामक रुख की तारीफ की है, लेकिन जिस संस्कार या तहजीब की आस लगाये हम टीवी चैनल देखते हैं या कम से कम आशा करते हैं, वह यहां ढहती नजर आती है।
नजाकत, शराफत और तहजीब से उलटा कठोरता, उद्दंडता और बदतमीजी जैसे शब्द कभी-कभी ज्यादा प्रयोग किये जा सकते हैं। क्योंकि उस चैनल को देखते समय खास मुद्दे से अलग बात-बात पर एंकर के मुंह बिचकाने की घटना पर ज्यादा ध्यान जाता रहता है। जबकि चैनल संचालनकर्ता को ये ख्याल रखना चाहिए कि प्रेजेंटेशन के समय एंकर की शैली ऐसी हो कि वह मुद्दे से ध्यान न भटकाए और न ही दर्शक की भावना को प्रभावित करे। हम लोगों को चैनलवालों से कोई रिश्ता, नाता नहीं, लेकिन किसी-किसी खास चैनल से काफी उम्मीदें रहती हैं और वे उम्मीदें जब ढहती नजर आती है, तो मन तिलमिला उठता है। 

बीबीसी भी देखता हूं, तो उसमें टोन या स्वर के उच्च या मंद होने पर खासा जोर रहता है। ग्लैमर का तड़का कम रहता है और रिपोर्टिंग जानदार। क्या यहां के अंगरेजी चैनल उसकी नकल कम से कम तो कर सकते हैं? अच्छी बातों को लेने में कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्या अंगरेजी बोलते हुए कंधे उचका कर और मुंह बिचका कर बोलना ही तथाकथित आधुनिकता की निशानी है? अगर ये आधुनिकता है, तो इसे लेकर अंगरेजी चैनलवालों को सोचना चाहिए। हिन्दी चैनलवाले तो संस्कार ढोने के नाम पर पूरे संस्कारी बनते दिखाई देते हैं। वैसे में ये इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में ही दो छोरों का मामला लगता है। ऐसा लगता है कि इसी देश में दो किस्म की बिरादरी वास कर रही है। एक वह जो भारतीय संस्कृति में डूबी है और दूसरी वह जो पश्चिम की नकल करते हुए 

बागी तेवर अपनाये हुए है। कम से कम इस दूरी को पाटना होगा। नहीं तो ये खिचड़ी संस्कृति सारे तहजीबों का सत्यानाश कर देगी




Ambrose Bierce


Good manners will open doors that the best education cannot.

8 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

आप एकदम सत्‍य कह रहे हैं। साक्षात्‍कार लेने का अर्थ यह नहीं है कि आप सामने वाले को जलील करें। वह व्‍यक्ति साक्षात्‍कार के योग्‍य बना है तो उसमें कई गुण भी होंगे। जनता को यह बताना चाहिए कि वह व्‍यक्ति कैसे बड़ा बना है ना कि उससे ऐसे बेहुदे प्रश्‍न करें कि उसका चरित्र हनन हो। आज सारे ही एंकर ऐसा कर रहे हैं।

RAJNISH PARIHAR said...

आपने जिन बातों का जिक्र किया है वो सब सही है.ये चेनल वाले ये क्यों भूल जाते है की हर देश की अपनी एक संस्कृति और पहचान होती है...पाश्चात्य देशों की आँख मींच कर नक़ल करने के फेर में ये सब कुछ ताक पर रख देते है!पर क्या इन्हें उनके कार्यक्रमों का स्तर और प्रस्तुती करन नज़र नही आता?

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

ये नई नस्ल तैयार की जा रही है एक षड़यन्त्र के तहत. भारतीय संस्कृति को सिरे से खत्म करने के लिये... जिसमें बहुत सारे लोग अनजाने अपना सहयोग दे रहे हैं..

प्रवीण पाण्डेय said...

चैनल वालों को यह समझना चाहिये कि भारतीय समाज को बिना नौटंकी भी समाचार समझ में आता है । नौटंकी के अलग चैनल हैं ।

अजय कुमार झा said...

प्रभात जी सच में ही बहुत सूक्षमता से आपने समाचार प्रस्तुत करने वालों की रूपरेखा और भाव भंगिमा को खींच कर रख दिया और खिंचाई भी कर दी ।

अनूप शुक्ल said...

शरीर की भाषा का सहयोग अपनी अभिव्यक्ति की कमी को पूरा करने के लिये करते हैं। अब यह अलग बात है अक्सर बाडी लैन्गुयेज हाबी हो जाती है। मामला झाम वाला हो जाता है।

MAYUR said...

आपका observation सटीक है, और मुझे तो पहले लगता था के ये अंग्रेजी भाषा कि ही कमी है जो बिना मूह बिगड़े नहीं बोली जा सकती , पर अब लगता है कि ये मामला संस्कारों का ही है
बढिया

स्वप्निल भारतीय said...

मजे की बात तो यह है कि आपको भी अंत मे अग्रेजी कहावत का सहारा लेना पड ही गया।

क्या आश्रित हो गये हैं‌ हम? हमारी भाषा हिन्दी या अग्रेज़ी न हो कर हिंगलिश हो गयी‌ है। समाचार वाचक या प्रस्तुत कर्ता को एंकर कहते हैं। आकलन, अवलोकन की जगह आब्जरवेशन ने ले ली है। मामला संगीन है।

आपसे सहमत; बदलाव घर से शुरू होता है। गांधी ने कहा था: "जो बदलाव चाहते हो, वह बदलाव बनो।"

चलिये आज से हिगलिश का प्रयोग बंद करें? बुद्दू बक्से से कल निपटें? :-)

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